पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१६३

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१६० तुलसी की जीवन-भूमि. चल बसे इससे यहाँ कोई प्रयोजन नहीं। स्थापना हमारी यह है कि राम की जन्भूमि' ही वास्तव में तुलसी की भी जन्मभूमि है। और जो यह 'वधावनो वजायो' कांड है वह भी वास्तव में 'वावरी-मसजिद' के सामने वाला बनाने का कांड है। तुलसी सयाने हो कर इसी से तो एक सच्चे वैष्णव की भाँति सोचते हैं- काहे को रोस ? सच ही तो है। इसमें किसी पर 'शेष' क्यों किया जाय ! सब कुछ तो अपना कर्मफल ही है ? 'दोष' भी किसी को क्यों दिया जाय ? अपने किए का फल आप ही भोगना चाहिए और जो कुछ.संताप हो उससे विचलित न हो उसे अपना भाग्य समझ भोगना और उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। फिर तो राम-कृपा से सब कुछ सध जाता है। संत-समागम से सव संभव हो जाता है। फिर किसी राजलोक की चिन्ता नहीं रह जाती। रामकृपा से दुर्लभ क्या ?. जी हाँ, यह इसी राजकोप का प्रसाद था कि तुलसी को पहले कहीं शरण न मिली। यहाँ तक कि कुछ सचेत हुए ही थे कि आश्रयदाता भी सभी प्रकार से घाटा राजकोप देखने लगे और होते-होते एक दिन ऐसा भी आ गया कि तुलसी संत-कृपा से सब कुछ छोड़ राम के हो रहे । फिर तो- मारुति मन रुचि भरत की लखि लषन फही है। कलिकालहुँ नाथ ! नाम सौ प्रतीति प्रीति एक किंकर फी निवही है||१|| सफल समा. सुनि लै उठी जानी रीति रही है। कृपा.. गरीव निवाज की, 'देखत गरीब को साहब चाँह गही है ||२||