पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१२३

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११२ तुलसी की जीवन-भूमि महाराज छत्रसाल के समकालीन अनन्य नाम के एक प्रसिद्ध कवि हो गए हैं। 'अनन्य' दतिया राज्य के अंतर्गत सहुडा के निवासी और जाति के कायस्थ थे। दतिया के राना दलपतराय के पुत्र और सेहुड़ा के जागीरदार पृथ्वीचंद के ये गुरु थे। इनका दूसरा नाम 'भक्षर अनन्य' भी है। इनका जन्म संवत् १७१० के लगभग हुआ । महाराज छत्रसाल इनकी कविताओं को पसंद करते थे और एकवार इनको महा- राज ने दरवार में भी बुलाया था, पर सुनते हैं कि अनन्य कवि न आए। अनन्य कवि की कविता में तत्वज्ञान और धर्मोपदेश भरा रहता था। दुर्गाससशती का हिंदी अनुवाद सबसे पहले अनन्य कवि ने ही किया था । दतिया राज्य से अनन्य कवि को एक जागीर मिली थी। इस जागीर पर अव भी अनन्य कवि के वंशजों का अधिकार है। अनन्य कवि की पुस्तकों में ज्ञानपचासा, राजयोग और विज्ञानयोग प्रसिद्ध हैं। इनसे और महाराज छत्रसाल से भी इसी विषय पर प्रश्नोत्तर [qदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ २२६-७ ] उपयोगी होगा यहाँ ऐसा ही एक प्रश्नोत्तर। 'अनन्य' कवि का प्रश्न है- नारि ते होत नहीं नर रूप नहीं नर तें पुनि नारि बखानी । जांति नहीं पलटै सुपनै मरेहू ते भूत चुरैल बखानी । क्यों सखियाँ निज धाम की राजि भई नर रूप सों जातिहिरानी । वेद सही किधौं बाद सही हमको लिखि भेजनी एक जवानी ॥५॥ जाति नहीं पलटे नर नारि की क्यों सखियाँ नर रूप वखानी । जो नर रूप भयो तो भयौ पुरुषोत्तम सो ऋतु कैसे क मानी । जो पुरुपोचम सों ऋतु होय तौ इतै फित नारिन के रससानी । यह द्विविधा में प्रमाण नहीं हमको लिख भेजवी एफ जवानी ॥६॥