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है। यह है बड़ी भयानक वस्तु। इसका नाम है 'विषतूलिका'। सामने गिर पड़े तो भी दुःख देती है।

पंडित जी जब 'विषतूलिका' का उच्चारण अपने होंठों को बना कर बड़ी गंभीरता से कर रहे थे और सब स्त्रियां हंस रही थीं, तब राजकुमारी ने तितली की ओर देखकर मन-हीमन घृणा से कहा—विषतूलिका। उस समय उसकी मुखाकृति बड़ी डरावनी हो गई थी। परंतु सुखदेव चौबे को सामने देखते ही उसका हृदय लहलहा गया। रधिया को न जाने क्या सूझा, ढोल बजाती हुई सुखदेव के नाम के साथ कुछ जोड़कर गाने लगी। सब उस परिहास में सहयोग करने लगीं। तितली उठकर मर्माहत-सी जमुना के पास चली गई।

रात हो गई थी। राजकुमारी भी छुट्टी मांगकर अपनी बुधिया, कल्लो को लेकर चली। राह में ही जनवासा पड़ता था। रावटियों के बाहर बड़े-से-बड़े चंदोवे के नीचे मैना गा रही थी-

'लगे नैन बालेपन से'

राजकुमारी कुछ काल के लिए रुक गई। दुधिया ने कहा—चलो, न मालकिन! दूर से खड़ी होकर हम लोग भी नाच देख लें। नहीं रे! कोई देख लेगा।

कौन देखता है, उधर अंधेरे में बहुत-सी स्त्रियां हैं। वहीं पीछे हम लोग भी बूंघट खींचकर खड़ी हो जाएंगी। कौन पहचानेगा?

राजकुमारी के मन की बात थी। वह मान गई। वह भी जाकर आम के वृक्ष की घनी छाया में छिपकर खड़ी हो गई। बुधिया और कल्लो तो ढीठ थीं, आगे बढ़ गईं। उधर गांव की बहुत-सी स्त्रियां और लड़के बैठे थे। वे सब जाकर उन्हीं में मिल गईं। पर राजकुमारी का साहस न हुआ। आम की मंजरी की मीठी मतवाली महक उसके मस्तिष्क को बेचैन करने लगी।

मैना उन्मत्त होकर पंचम स्वर में गा रही थी। उसका नृत्य अद्भुत था। सब लोग चित्रखिंचे-से देख रहे थे। कहीं कोई भी दूसरा शब्द नहीं सुनाई पड़ता था। उसके मधुर नूपुर की झनकार उस वसंत की रात को गुंजा रही थी।

राजकुमारी ने विव्हल होकर कहा—बालेपन से; साथ ही एक दबी सांस उसके मुंह से निकल गई। वह अपनी विकलता से चंचल होकर जल्दी से अपनी कोठरी में पहुंचकर किवाड़ बंद कर लेने के लिए घबरा उठी। पर जाए तो कैसे। बुधिया और कल्लो तो भीड़ में थीं। वहां जाकर उन्हें बुलाना उसे जंचता न था। उसने मन-ही-मन सोचा-कौन दूर शेरकोट है। मैं क्या अकेली नहीं जा सकती। कब तक यहीं खड़ी रहूंगी?—वह लौट पड़ी।

अंधकार का आश्रय लेकर वह शेरकोट की ओर बढ़ने लगी। उधर से एक बाहा पड़ता था। उसे लांघने के लिए वह क्षण-भर के लिए रुकी थी कि पीछे से किसी ने कहा—कौन है?

भय से राजकुमारी के रोंए खड़े हो गए। परंतु अपनी स्वाभाविक तेजस्विता एकत्र करके वह लौट पड़ी। उसने देखा, और कोई नहीं, यह तो सुखदेव चौबे हैं।

गांव की सीमा में खलिहानों पर से किसानों के गति सुनाई पड़ रहे थे। रसीली चांदनी की आर्द्रता से मंथर पवन अपनी लहरों से राजकुमारी के शरीर में रोमांच उत्पन्न करने लगा था। सुखदेव ज्ञानविहीन मूक पशु की तरह, उस आम की अंधेरी छाया में राजकुमारी के