न कर सकी थी—छोड़ने में असमर्थ थी।
मधुबन भी तो अब वहां नहीं आता। उस दिन ब्याह में राजकुमारी का वह विरोध उसे बहुत ही खला। उसे धीरे-धीरे राजकुमारी के चरित्र में संदेह भी हो चला था। किंतु उसकी वही दशा थी, जैसे कोई मनुष्य भय से आंख मूंद लेता है। वह नहीं चाहता था कि अपने संदेह की परीक्षा करके कठोर सत्य का नग्न रूप देखे।
मधुबन को नील-कोठी का काम करना पड़ता। वहां से उसको कुछ रुपये मिलते थे। इसी बहाने को वह सब लोगों से कह देता कि उसे शेरकोट आने-जाने में नौकरी के लिए असुविधा थी। इसीलिए बनजरिया में रोटी खाता था। राजकुमारी की खीझ और भी बढ़ गई थी। यूं तो मधुबन पहले ही कुछ नहीं देता था। राजकुमारी अपने बुद्धि-बल और प्रबंध-कुशलता से किसी-न-किसी तरह रोटी बनाकर खा-खिला लेती थी। पर जब मधुबन को कछ मिलने लगा, तब उसमें से कछ मिलने की आशा करना उसके लिए स्वाभाविक था। किंतु वह नहीं चाहती थी कि वास्तव में उसे मधुबन कुछ दिया करे। हां, वह तो यह भी चाहती थी, मधुबन इसके लिए फिर शेरकोट में न आने लगे; और इससे नवजात विरोध का पौधा और भी बढ़ेगा। विरोध उसका अभीष्ट था।
संध्या होने में भी विलंब था। राजकुमारी अपने बालों में कंघी कर चुकी थी। उसने दर्पण उठाकर अपना मुंह देखा। एक छोटी-सी बिंदी लगाने के लिए उसका मन ललच उठा। रोली, कुमकुम, सिंदूर वह नहीं लगा सकती, तब? उसने नियम और धर्म की रूढ़ि बचाकर काम निकाल लेना चाहा। कत्थे और चूने को मिलाकर उसने बिंदी लगा ली। फिर से दर्पण देखा। वह अपने ऊपर रीझ रही थी। हां, उसमें वह शक्ति आ गई थी कि पुरुष एक बार उसकी ओर देखता। फिर चाहे नाक चढ़ाकर मुंह फिरा लेता। यह तो उनकी विशेष मनोवृत्ति है। परुष, समाज में वही नहीं चाहता, जिसके लिए उसी का मन छिपेछिपे प्रायः विद्रोह करता रहता है। वह चाहता है, स्त्रियां सुंदर हों, अपने को सजाकर निकलें और हम लोग देखकर उनकी आलोचना करें। वेश-भूषा के नये-नये ढंग निकालता है। फिर उनके लिए नियम बनाता हैं पर जो सुंदर होने की चेष्टा करती हो, उसे अपना अधिकार प्रमाणित करना होगा।
राजो ने यह अधिकार खो दिया था। वह बिंदी लगाकर पंडित दीनानाथ की लड़की के ब्याह में नहीं जा सकती थी। दुःख से उसने बिंदी मिटाकर चादर ओढ़ ली। बुधिया, सुखिया और कल्लो उसके लिए कब से खड़ी थीं। राजकुमारी को देखकर वह सब-की-सब हंस पड़ी।
क्या है रे?—अपने रूप की अभ्यर्थना समझते हुए भी राजकुमारी ने उनकी हंसी का अर्थ समझना चाहा। अपनी किसी भी वस्तु की प्रशंसा कराने की साध बड़ी मीठी होती है न? चाहे उसका मूल्य कुछ हो। बुधिया ने कहा—चलो मालकिन! बारात आ गई होगी!
जैसे तेरा ही कन्यादान होने वाला है। इतनी जल्दी।—कहकर राजकुमारी घर में ताला लगाकर निकल गई। कुछ ही दूर चलते-चलते और भी कितनी ही स्त्रियां इन लोगों के झुंड में मिल गईं। अब यह ग्रामीण स्त्रियों का दल हंसते-हंसते परस्पर परिहास में विस्मृत, दीनानाथ के घर की ओर चला।
अन्न को पका देने वाली पश्चिमी पवन सर्राटे से चल रही थी। जौ-गेहूं के कुछ-कुछ पीले बाल उसकी झोंक में लोट-पोट हो रहे थे। वह फागुन की हवा मन में नई उमंग बढ़ाने