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ओर देखकर पूछा–मधुवा, आज तू क्या-क्या ले गया था?

डेढ़ सेर घुमची, एक बोझा महुआ का पत्ता और एक खांचा कंडा बाबाजी!–मधुवा ने हाथ जोड़कर कहा।

इन सबका दाम एक रुपया नौ आना ही मिला?

चार पैसे बंधू को मजूरी में दिए थे।

अभी दो सेर घुमची और होगी बापू! बहुत-सी फलियां वनबेरी के झुरमुट में हैं, झड़ जाने पर उन्हें बटोर लूंगी। बंजो ने कहा। बुड्ढा मुस्कुराया। फिर उसने कहा मधुवा! तू गायों को अच्छी तरह चराता नहीं बेटा! देख तो, धवली कितनी दुबली हो गई है!

कहां चरावें, कुछ ऊसर-परती कहीं चरने के लिए बची भी है?—मधुवा ने कहा।

बंजो अपनी भूरी लटों को हटाते हुए बोली—मधुवा गंगा में घंटों नहाता है बापू! गाएं अपने मन से चरा करती हैं! यह जब बुलाता है,तभी सब चली आती हैं।

बंजो की बात न सुनते हुए बाबाजी ने कहा-तू ठीक कहता है मधुवा! पशुओं को खाते-खाते मनुष्य, पशुओं के भोजन की जगह भी खाने लगे। ओह! कितना इनका पेट बढ़ गया है! वाह रे समय!!

मधुवा बीच ही में बोल उठा—बंजो, बनिया ने कहा है कि सरफोंका की पत्ती दे जाना,अब मैं जाता हूं।

कहकर वह झोपड़ी के बाहर चला गया।

संध्या गांव की सीमा में धीरे-धीरे आने लगी। अंधकार के साथ ही ठंड बढ़ चली। गंगा की कछार की झाड़ियों में सन्नाटा भरने लगा। नालों के करारों में चरवाहों के गति गूंज रहे थे।

बंजो दीप जलाने लगी। उस दरिद्र कुटीर के निर्मम अंधकार में दीपक की ज्योति तारा-सी चमकने लगी। बुड्ढे ने पुकारा-बंजो

आयी—कहती हुई वह बुड्ढे की खाट के पास आ बैठी और उसका सिर सहलाने लगी। कुछ ठहरकर बोली—बापू! उस अकाल का हाल न सुनाओगे?

तू सुनेगी बंजो क्या करेगी सुनकर बेटी? तू मेरी बेटी है और मैं तेरा बूढ़ा बाप! तेरे लिए इतना जान लेना बहुत है।

नहीं बापू! सुना दो मुझे वह अकाल की कहानी—बंजो ने मचलते हुए कहा।

धांय-धांय-धांय...!!!

गंगा-तट बंदूक के धड़ाके से मुखरित हो गया। बंजो कुतूहल से झोपड़ी के बाहर चली आई।

वहां एक घिरा हुआ मैदान था। कई बीघा की समतल भूमि—जिसके चारों ओर, दस लढे की चौड़ी, झाड़ियों की दीवार थी जिसमें कितने ही सिरिस, महुआ, नीम और जामुन के वृक्ष थे—जिन पर घुमची, सतावर और करंज, इत्यादि की लतरें झूल रही थीं। नीचे की भूमि में मटेस के चौड़े-चौड़े पत्तों की हरियाली थी। बीच-बीच में वनबेर ने भी अपनी कंटीली डालों को इन्हीं सबों से उलझा लिया था।

वह एक सघन झुरमुट था—जिसे बाहर से देखकर यह अनुमान करना कठिन था कि