झुण्ड मौन होकर बैठा था।
कंधों से सरसों के फूलों के घनेपन को चीरते हुए इंद्रदेव ने उस स्पंदन-विहीन प्रकृति-खंड को आदोलित कर दिया। भयभीत कराकुल झुंड-के-झुंड उड़कर उस धूमिल आकाश में मंडराने लगे।
इंद्रदेव के मस्तक पर कोई विचार नहीं था। एक सन्नाटा उसके भीतर और बाहर था। वह चुपचाप गंगा की विचित्र धारा को देखने लगे।
चौबेजी ने सहसा आकर कहा—बड़ी सरकार बुला रही हैं।
क्यों?
यह तो मैं...हां, बाबू श्यामलाल जी आए हैं; इसी के लिए बुलाया होगा।
तो मैं आता हूं अभी जल्दी क्या है?
उसके लिए कौन-सा कमरा...?
हूं, तो कह दो कि मां इसे अच्छी तरह समझती होंगी। मुझसे पूछने की क्या आवश्यकता? न हो मेरे ही कमरे में, क्यों, ठीक होगा न? न हो तो छोटी कोठी में, या जहां अच्छा समझें।
जैसा कहिए।
तब यही जाकर कह दो। मैं अभी ठहरकर आऊंगा।
चौबे चले गए।
इंद्रदेव वहीं खड़े रहे। शैला को इस अंधकार के शैशव में वहीं देखने की कामना उत्तेजित हो रही थी, और वह आ भी गई। इंद्रदेव ने प्रसन्न होकर कहा—इस समय मैं जो भी चाहता, वह मिलता।
क्या चाहते थे?
तुमको यहां देखना। देखा, आज यह कैसी संध्या है! मैं तो लौटने का विचार कर रहा था।
और मैं कोठी से होती हुई आ रही हूं।
भला, आज कितने दिनों पर।
तुम अप्रसन्न हो इसके लिए न! मैं क्या करूं।—कहते-कहते शैला का चेहरा तमतमा गया। वह चुप हो गई।
कुछ कहो शैला! तुम क्यों आने में संकोच करती हो? मैं कहता हूं कि तुम मुझे अपने शासन में रखो। किसी से डरने की आवश्यकता नहीं।
शैला ने दीर्घ निःश्वास लेकर कहा—मैं तो शासन कर रही हूं। और अभी अधिक तम्हारे ऊपर अत्याचार करते हए मैं कांप उठती हूं! इंद्र! तम कैसे दबले हए जा रहे हो? तम नहीं जानते कि मैं तुम्हारे अधिक क्षोभ का कारण नहीं बनना चाहती। कोठी में अधिक जाने से अच्छा तो नहीं होता।
क्या अच्छा नहीं होता। कौन है जो तुमको रोकता। शैला! तुम स्वयं नहीं आना चाहती हो। और मैं भी तुम्हारे पास आता हूं तो गांव-भर का रोना मेरे सामने इकट्ठा करके रख देती हो। और मेरी कोई बात ही नहीं! तुम कोठी पर...
ठहरो, सुन लो, मैं अभी कोठी पर गई थी। वहां कोई बाबू आए हैं। तुम्हारे कमरे में बैठे