तितली के विवाह में आशीर्वाद देंगे तो मुझे अनुगृहीत करेंगे।
इंद्रदेव तो चुप रहे। उनके मन में इस प्रसंग से न जाने क्यों विरक्ति हुई। अनवरी चुप रहने वाली न थी। उसने हंसकर कहा-वाह! तब तो ब्याह की मिठाई खाकर ही जाऊंगी।
तितली और मधुबन अभी वेदी के पास बैठे थे, सुखदेव किसी की प्रतीक्षा में इधर-उधर देख रहे थे कि तहसीलदार साहब आते हुए दिखाई पड़े।
सुखदेव ने उठकर उनके कानों में कुछ कहा। तहसीलदार की कुतरी हुई छोटी-छोटी मूछें, कुछ फूले हुए तेल से चुपड़े गाल-जैसा कि उतरती हुई अवस्था के सुखी मनुष्यों का प्राय: दिखाई पड़ता है, नीचे का मोटा लटकता हुआ होंठ, बनावटी हंसी हंसने की चेष्टा में व्यस्त, पट्टेदार बालों पर तेल से भरी पुरानी काली टोपी, कुटिलता से भरी गोल-गोल औखें किसी विकट भविष्य की सूचना दे रही थीं। उन्होंने लम्बा सलाम करते हुए इंद्रदेव से कहा—मैं एक जरूरी काम से चला गया था। इसी से...
इंद्रदेव को इस विवरण की आवश्यकता न थी। उन्होंने पूछा—नील-कोठी से आप हो आए? वहां का प्रबंध सब ठीक है न।
हां—एक बात आपसे कहना चाहता हूं।
इंद्रदेव उठकर तहसीलदार की बात सुनने लगे। उधर वेदी के पास ब्याह की विधि आरंभ हई। शैला भी वहां चली गई थी। मधुबन आहुतियां दे रहा था और तितली निष्कंप दीप-शिखा-सी उसकी बगल में बैठी हुई थी।
सहसा दो स्त्रियां वहां आकर खड़ी हो गईं। आगे तो राजकुमारी थी। उसके पीछे कौन थी, यह अभी किसी को नहीं मालूम। राजकुमारी की आखें जल रही थीं। उसने क्रोध से कहा, बाबाजी, किसी का घर बिगाड़ना अच्छा नहीं। मेरे मना करने पर भी आप ब्याह करा रहे हैं। किसी लड़के को फसलाना आपको शोभा नहीं देता।
दूसरी स्त्री चादर के घूंघट में से ही बिलखकर कहने लगी—क्या इस गांव में कोई किसी की सुनने वाला नहीं? मेरी भतीजी का ब्याह मुझसे बिना पूछे करने वाला यह बाबा कौन होता है? हे राम! यह अंधेर!
मिस्टर वाट्सन उठकर खड़े हो गए। अनवरी के मुख पर व्यंग्यपूर्ण आश्चर्य था और सुखदेव के क्रोध का तो जैसे कुछ ठिकाना ही न था। उन्होंने चिल्लाकर कहा—सरकार, आप लोगों के रहते ऐसा अन्याय न होना चाहिए।
क्षण-भर के लिए मधुबन रुककर क्रोध से सुखदेव की ओर देखने लगा। वह आसन छोड़कर उठने ही वाला था। वह जैसे नींद से सपना देखकर बोलने का प्रयत्न करते हुए मनुष्य के समान अपने क्रोध से असमर्थ हो रहा था।
उधर रामनाथ ने चारों ओर देखकर गंभीर स्वर से कहा—शांत हो मधुबन! अपना काम समाप्त करो। यह सब तो जो हो रहा है, उसे होने दो।
और तितली की दशा, ठीक गांव के समीप रेवले-लाइन के तार को पकड़े हुए उस बालक-सी थी, जिसके सामने से डाक-गाड़ी भक्-भक् करती हुई निकल जाती है—सैकड़ों सिर खिड़कियों से निकले रहते हैं, पर पहचान में एक भी नहीं आते, न तो उनकी आकृति या वर्णरेखाओं का ही कुछ पता चलता है। वह अपनी सारी विडम्बना को हटाकर अपनी दृढ़ता में खड़ी रहने का प्रयत्न करने लगी थी।