नहीं दिखाई देती। फिर भी, मुझे धीरे-धीरे विश्वास हो चला है कि भारतीय सम्मिलित कम्भंटब की योजना की कड़ियां चूर-चूर हो रही हैं। वह आर्थिक संगठन अब नहीं रहा, जिसमें कुल का एक प्रमुख सबके मस्तिष्क का संचालन करता हुआ रुचि की समता का भार ठीक रखता था। मैंने जो अध्ययन किया है, उसके बल पर इतना तो कह ही सकता हूं कि हिंदू समाज की बहुत-सी दुर्बलताएं इस खिचड़ी-कानून के कारण हैं। क्या इसका पुनर्निर्माण नहीं हो सकता। प्रत्येक प्राणी, अपनी व्यक्तिगत चेतना का उदय होने पर, एक कम्भटम्ब में रहने के कारण अपने को प्रतिकूल परिस्थिति में देखता है। इसलिए सम्मिलित कम्भंटब का जीवन दुखदाई हो रहा है।
सब जैसे-भीतर-भीतर विद्रोही! मुंह पर कृत्रिमता और उस घड़ी की प्रतीक्षा में ठहरे हैं कि विस्फोट हो तो उछलकर चले जाएं।
माधरी कितनी स्नेहमयी थी। मुझे उसकी दशा का जब स्मरण होता है, मन में वेदना होती है। मेरी बहन! उसे कितना दुख है। किंतु जब देखता हूं कि वह मुझसे स्नेह और सांत्वना की आशा करने वाली निरीह प्राणी नहीं रह गई है, वह तो अपने लिए एक दृढ़ भूमिका चाहती है, और चाहती है, मेरा पतन, मुझी से विरोध, मेरी प्रतिद्वंद्विता! तब तो हृदय व्यथित हो जाता है। यह सब क्यों? आर्थिक सुविधा के लिए!
और मां-जैसे उनके दोनों हाथ दो दुर्दांत व्यक्ति लूटने वाले-पकड़कर अपनी ओर खींच रहे हों, दुविधा में पड़ी हुई, दोनों के लिए प्रसन्नता-दोनों को अश्घिर्वाद देने के लिए प्रस्तुत! किंतु फिर भी झुकाव अधिक माधुरी की ओर! माधुरी को प्रभुत्व चाहिए। प्रभुत्व का नशा, ओह कितना मादक है! मैंने थोड़ी-सी पी है। किंतु मेरे घर की स्त्रियां तो इस एकाधिकार के वातावरण में मुझसे भी अधिक! सम्मिलित कम्भंटब कैसे चल सकता है?
मुझे पुत्र-धर्म का निर्वाह करना है। मातृ-भक्ति, जो मझमें सच्ची थी, कृत्रिम होती जा रही है। क्यों? इसी खींचा-तानी से। अच्छा तो मैं क्यों इतना पतित होता जा रहा हूं। मैंने बैरिस्टरी पास की है मैं तो अपने हाथ-पैर चला कर भी आनंद से रह सकता हूं। किंतु यह आर्थिक व्यथा ही तो नहीं रही। इसमें अपने को जब दूसरों के विरोध का लक्ष्य बना हुआ पाता हूं तो मन की प्रतिक्रिया प्रबल हो उठती है। तब पुरुष के भीतर अतीतकाल से संचित अधिकार का संस्कार गरज उठता है।
और भी मेरे परिचय के संबंध में इन लोगों को इतना कुतूहल क्यों? इतना विरोध क्यों? मैं तो उसे स्पष्ट षड्यंत्र कहूंगा। तो ये लोग क्या चाहती हैं कि बच्चा बना रहूं।
यह तो हुई दूसरी बात। हां जी दूसरे, अपने कहां? अच्छा, अब अपनी बात। मैं किसी माली की संकरी क्यारी का कोई छोटा-सा पौधा होना बुरा नहीं समझता; किंतु किसी की मुड़ी में गुच्छे का कोई सुगंधित फूल नहीं बनना चाहता। प्राचीन काल में घरों के भीतर तो इतने किवाड़ नहीं लगते थे। उतनी तो स्वतंत्रता थी। अब तो जगह-जगह ताले, कुण्डियां और अर्गलाएं मेरे लिए यह असद्य है।
बड़ी-बड़ी अभिलाषाएं लेकर मैं इंग्लैंड से लौटा था। यह सुधार करूंगा, वह करूंगा। किंतु मैं अपने वातावरण में घिरा हुआ बेबस हो रहा हूं। हम लोगों का जातीय जीवन संशोधन के योग्य नहीं रहा। धर्म और संस्कति! निराशा की सष्टि है। इतिहास कहता है कि संशोधन के लिए इसमें सदैव प्रयत्न हुआ है। किंतु जातीय जीवन का क्षण बड़ा लम्बा होता