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इसीलिए न कि रसोई नहीं बनी है। तो मैं क्या रसोई-दारिन हूं। आज नहीं बनी—न सही।

मधुबन दौड़कर बाहर आया। बुढ़िया को खोजने लगा। वह भी नहीं दिखाई पड़ी। उसने फिर भीतर जाकर रसोई-घर देखा। कहीं धुएं या चूल्हा जलने का चिन्ह नहीं। बरतनों को उलट-पलट कर देखा। भूख लग रही थी। उसे थोड़ा-सा चबेना मिला। उसे बैठकर मनोयोग से खाने लगा। मन-ही-मन सोचता था—आज बात क्या है? डरता भी था कि राजकुमारी चिढ़ न जाय! उसने भी मन में स्थिर किया—आज यहां रहूंगा नहीं।

मधुबन का रूठने का मन हुआ। वह चुपचाप जल पीकर चला गया।

राजकुमारी ने सब जान-बूझकर—कहा—हूं। अभी यह हाल है तो तितली से ब्याह हो जाने पर तो धरती पर पैर ही न पड़ेंगे।

विरोध कभी-कभी बड़े मनोरंजक रूप में मनुष्य के पास धीरे से आता है और अपनी काल्पनिक सृष्टि में मनुष्य को अपना समर्थन करने के लिए बाध्य करता है—अवसर देता है—प्रमाण ढूंढ़ लाता है और फिर; आंखों में लाली, मन में धृणा, लड़ने का उन्माद और उसका सुख—सब अपने-अपने कोनों से निकलकर उसके हां-में-हां मिलाने लगते हैं।

गोधूली आई। अंधकार आया। दूर-दूर झोपड़ियों में दीये जल उठे। शेरकोट का खंडहर भी सांय-सांय करने लगा। किंतु राजकुमारी आज उठती ही नहीं। वह अपने चारों ओर और भी अंधकार चाहती थी!


6.

उजली धूप बनजरिया के चारों ओर, उसके छोटे-पौधों पर, फिसल रही थी। अभी सवेरा था, शरीर में उस कोमल धूप की तीव्र अनुभूति करती हुई तितली, अपने गोभी के छोटे-से खेत के पास, सिरिस के नीचे बैठी थी। झाड़ियों पर से ओस की बूंदें गिरने-गिरने को हो रही थीं। समीर में शीतलता थी।

उसकी आंखों में विश्वास कुतूहल बना हुआ संसार का सुंदर चित्र देख रहा था। किसी ने पुकारा—तितली! उसने घूमकर देखा; शैला अपनी रेशमी साड़ी का आंचल हाथ में लिये खड़ी है।

तितली की प्रसन्नता चंचल हो उठी। वहीं खड़ी होकर उसने कहा—आओ बहन! देखो न! मेरी गोभी में फूल बैठने लगे हैं।

शैला हंसती हुई पास आकर देखने लगी। श्याम-हरित पत्रों में नन्हें-नन्हें उजले-उजले फूल! उसने कहा—वाह! लो, तुम भी इसी तरह फूलो-फलो।

अश्घिर्वाद की कृतज्ञता में सिर झुकाकर तितली ने कहा—कितना प्यार करती हो मुझे!

तुमको जो देखेगा, वही प्यार करेगा।

अच्छा-उसने अप्रतिभ होकर कहा।