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ईषत् हंसी से कहा। क्यों? तुम्हारे संसर्ग से जो मैंने सीखा है, उसका पहला पाठ यही है कि दूसरे मुझको क्या कहते हैं, इस पर इतना ध्यान देने की आवश्यकता नहीं। पहले मुझे ही अपने विषय में सच्ची जानकारी होनी चाहिए। मैं चाहती हूं कि तुम्हारी जमींदारी के दातव्य विभाग से जो खर्च स्वीकृत हुआ है, उसी में मैं अपना और औषधालय का काम चलाऊं। बैंक में भी कुछ काम कर सकू तो उससे भी कुछ मिल जाया करेगा और मेरी स्वतंत्र स्थिति इन प्रवादों को स्वयं ही स्पष्ट कर देगी। बात तो ठीक है— इन्द्रदेव ने कुछ सोचकर धीरे-से कहा। पर इसके लिए तुमको एक प्रबंध कर देना पड़ेगा। पहले मैंने सोचा था कि गांव में कई जगह कर्म-केंद्र की सष्टि हो सकती है। भिन्न-भिन्न शक्ति वाले अपने-अपने काम में जट जाएंगे। किंतु अब मैं देखती हूं कि इसमें बड़ी बाधा है, और मैं उन पर इस तरह नियंत्रण न कर सकूँगी। इसलिए बैंक और औषधालय, ग्राम सुधार और प्रचार-विभाग, सब एक ही स्थान पर हों। तो ठीक है! शेरकोट में ही सब विभागों के लिए कमरे बनवाने की व्यवस्था कर दो न! किंतु इसमें मैं एक भूल कर गई हूं। क्या उसके सुधारने का कोई उपाय नहीं है? भूल कैसी? कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो जान-बूझकर एक रहस्यपूर्ण घटना को जन्म देते हैं। स्वयं उसमें पड़ते हैं और दूसरों को भी फंसाते हैं। मैं भी शेरकोट को बैंक के लिए चुनने में कुछ इस तरह मूर्ख बनाई गई हूं। इन्द्रदेव ने हंसते हए कहा मैं देख रहा हं कि तुम अधिक भावनामयी होती जा रही हो। यह संदेह अच्छा नहीं। शेरकोट के लिए तो मां ने सब प्रबंध कर भी दिया है। अब फिर क्या हुआ? शेरकोट एक पुराने वंश की स्मृति है। उसे मिटा देना ठीक नहीं। अभी मधुबन नाम का एक युवक उसका मालिक है। तहसीलदार से उसकी कुछ अनबनहै, इसलिए यह... मधुबन! अच्छा तो मैं क्या कर सकता हूं। तुम बैंक न भी बनवाओ, तो होता क्या है। अब तो वह बेचारा उस शेरकोट से निकाला ही जाएगा। __तुम एक बार मां से कहो न! और नीलवाली कोठी की मरम्मत करा दो, इसमें रुपए भी कम लगेंगे, और... _ निलवाली कोठी!—आश्चर्य से इन्द्रदेव ने उसकी ओर देखा। हां, क्यों? अरे वह तो भूतही कोठी कही जाती है। जहां मनुष्य नहीं रहते वहीं तो भूत रह सकेंगे? इन्द्रदेव! मैं उस कोठी को बहुत प्यार करती हूं। कब से शैला?— हंसते हुए इन्द्र ने उसका हाथ पकड़ लिया। इन्द्र। तुम नहीं जानते। मेरी मां यहीं कुछ दिनों तक रह चुकी है। इन्द्रदेव की औखें जैसे बड़ी हो गईं। उन्होंने कुर्सी से उठ खड़े होकर कहा—तुम क्या