________________
सहसा एक दिन इन्द्रदेव को यह चेतना हुई कि वह जो कुछ पहले थे, अब नहीं रहे! उन्हें पहले भी कुछ-कुछ ऐसा भान होता था कि परदे पर एक दूसरा चित्र तैयारी से आने वाला है; पर उसके इतना शीघ्र आने की संभावना न थी। शैला के लिए वह बार-बार सोचने लगे थे। उसकी क्या स्थिति होगी, यही वह अभी नहीं समझ पाते थे। कभी-कभी वह शैला के संसर्ग से अपने को मुक्त करने की भी चेष्टा करने लगते—यह भी विरक्ति के कारण नहीं, केवल उसका गौरव बनाने के लिए। उनके कुटुंब वालों के मन में शैला को वेश्या से अधिक समझने की कल्पना भी नहीं हो सकती थी। यह प्रच्छन्न व्यंग्य उन्हें व्यथित कर देता था। उधर शैला भी इससे अपरिचित थी—ऐसी बात नहीं। तब भी इन्द्रदेव से अलग होने की कल्पना उसके मन में नहीं उठती थी। इसी बीच में उसने शहर में जाकर मिशनरी सोसाइटी से भी बातचीत की थी। उन लोगों ने स्कूल खोलकर शिक्षा देने के लिए उसे उकसाया। __किंतु उसने मिशनरी होना स्वीकार नहीं किया। इधर वह बाबा रामनाथ के यहां हितोपदेश पढ़ने भी जाती थी अर्थात् इन्द्रदेव और शैला दोनों ही अपने को बहलाने की चिंता में थे। वे इस उलझन को स्पष्ट करने के लिए क्या-क्या करने की बातें सोचते थे, पर एक-दूसरे से कहने में संकुचित ही नहीं, किंतु भयभीत भी थे; क्योंकि इन्द्रदेव के परिवार में घटनाएं बड़े वेग से विकसित हो रही थीं। किसी भी क्षण में विस्फोट होकर कलह प्रकट हो सकता था। इमली के पेड़ के नीचे आरामकुर्सियों पर शैला और इन्द्रदेव बैठकर एक-दूसरे को चुपचाप देख रहे थे। प्रभात की उजली धूप टेबल पर बिछे हुए रेशमी कपड़ों पर, रह-रहकर तड़प उठती थी, जिस पर धरे हुए फूलदान के गुलाबों में से एक भीनी महक उठकर उनके वातावरण को सुगंधपूर्ण कर रही थी। इन्द्रदेव ने जैसे घबराकर कहा-शैला क्या! तुम कुछ देख रही हो? सब कुछ। किंतु इतने विचारमूढ़ क्यों हो रहे हो? यही समझ में नहीं आता। तुम्हारी वह कल्पना सफल होती नहीं दिखाई देती। इसी का मुझे दुःख है। किंतु अभी हम लोगों ने उसके लिए कुछ किया भी तो नहीं। कर नहीं सकते। यह मैं नहीं मानती। तुमको कुछ मालूम है कि तुम्हारे संबंध में यहां कैसी बातें फैलाई जा रही हैं? हां! मैं रात-रात को घूमा करती हूं जो भारतीय स्त्रियों के लिए ठीक नहीं। मैं रामनाथ के यहां संस्कृत पढ़ने जाती हूं। यह भी बुरा करती हूं। और, तुमको भी बिगाड़ रही हूं। यही बात न? अच्छा, इन बातों के किसी-किसी अंश पर देखती हूं कि तुम भी अधिक ध्यान देने लगे हो। नहीं तो इतना सोचने-विचारने की क्या आवश्यकता थी? मैं इतना ही नहीं। मैं अब इसलिए चिंतित हूं कि अपना और तुम्हारा संबंध स्पष्ट कर दूं। यह ओछा अपवाद अधिक सहन नहीं किया जा सकता। किंतु मैं अभी उस प्रश्न पर विचारने की आवश्यकता ही नहीं समझती!– शैला ने