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यह कहकर जब वह लौटने लगी, तो मधुबन ने कहा-अच्छा, फिर आज से मैं रहा मधुबन और तुम तितली। यही न? दोनों की आंखें आंखें एक क्षण के लिए मिली—स्नेहपूर्ण आदान-प्रदान करने के लिए। मधुबन उठ खड़ा हुआ, तितली बाहर चली आई। उसने देखा, शैला और अनवरी चुपचाप खड़ी हैं! वह सकुचा गई। शैला ने सहज मुस्कुराहट से कहा—तब तुम्हारा नाम तितली हे क्यों? हां-कहकर तितली ने सिर झुका लिया। आज जैसे उसे अकेले में मधुबन से बातें करते हुए समग्र संसार ने देखकर व्यंग्य से हंस दिया हो। वह संकोच में गड़ी जा रही थी। शैला ने उसकी ठोढ़ी उठाकर कहा—लो, यह पांच रुपए तुम्हारे उस दिन की मजूरी के हैं। मैं, में न लगी। बाप बिगड़ेंगे। वह चंचल हो उठी। किंतु शैला कब मानने वाली थी। उसने कहा—देखो, इसमें ढाई रुपए तो मधुबन को दे दो, वह अपना खेत सींच ले और बाकी अपने पास रख लो। फिर कभी काम देगा। अब मधुबन भी निकल आया था। वह विचार-विमूढ था, क्या कहे! तब तक तितली को रुपया न लेते देखकर शैला ने मधुबन के हाथ में रुपया रख दिया, और कहा—बाकी रुपया जब तितली मांगे तो दे देना। समझा न? मैं तुम लोगों को छावनी पर बुलाऊं, तो चले आना। ___ दोनों चुप थे। अनवरी अब तक चुप थी; किंतु उसके हृदय ने इस सौहार्द को अधिक सहने से अस्वीकार कर दिया। उसने कहा—हो चुका, चलिए भी। धूप निकल आई है। शैला अनवरी के साथ घूम पड़ी। उसके हृदय में एक उल्लास था। जैसे कोई धार्मिक मनुष्य अपना प्रातः-कृत्य समाप्त कर चुका हो। दोनों धीरे-धीरे ग्राम-पथ पर चलने लगीं। अनवरी ने धीरे-से प्रसगं छेड़ दिया मिस शैला! आपको इन देहाती लोगों से बातचीत करने में बड़ा सुख मिलता है। मिस अनवरी! सुख! अरे मुझे तो इनके पास जीवन का सच्चा स्वरूप मिलता है, जिसमें ठोस मेहनत, अटूट विश्वास और संतोष से भरी शांति हंसती-खेलती है। लंदन की भीड़ से दबी हुई मनुष्यता में मैं ऊब उठी थी, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मैं दुख भी उठा चुकी हूं। दुखी के साथ दुखी की सहानुभूति होना स्वाभाविक है। आपको यदि इस जीवन में सुख-ही-सुख मिला है तो... नहीं-नहीं, हम लोगों को सुख-दुख जीवन से अलग होकर कभी दिखाई नहीं पड़ा। रुपयों की कमी ने मुझे पढ़ाया और मैं नर्स का काम करने लगी। जब अस्पताल का काम छोड़कर अपनी डॉक्टरी का धंधा मैंने फैलाया, तो मुझे रुपयों की कमी न रही। पर मुझे तो यही समझ पड़ता है कि मेहनत-मजूरी करते हुए अपने दिन बिता लेना, किसी के गले पड़ने से अच्छा है। ___ अनवरी यह कहते हुए शैला की ओर गहरी दृष्टि से देखने लगी। वह उसकी बगल में आ गई थी। सीधा व्यंग्य न खल जाए इसलिए उसने और भी कहा हम मसलमानों को तो मालिक की मर्जी पर अपने को छोड़ देना पड़ता है, फिर सुख-दुख की अलग-अलग परख