अच्छा, चलो उस लड़की को तो बुलावें। वह कहां है? उसे कल कुछ इनाम नहीं दिया। बड़ी अच्छी लड़की है। झोपड़ी में से लठिया टेकते हुए बुड्ढा निकल आया। उसके पीछे बंजो थी। शैला ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया, और कहने लगी-ओह! तुम रात को चली आईं, मैं तो खोज रही थी। तुम बड़ी नेक,...!
बंजो आश्चर्य से उसका मुंह देख रही थी। इन्द्रदेव ने कहा-बुड्ढे। तुम बहुत बीमार हो न? हां सरकार! मुझे नहीं मालूम था, रात को आप...
उसका सोच मत करो। तुम कौन कहानी कह रहे थे—रात को बंजो को क्या सुना रहे थे? मुझको सुनाओगे, चलो छावनी पर।
सरकार; मैं बीमार हूं। बुड्ढा हूं। बीमार हूं।
शैला ने कहा ठीक इन्द्रदेव, अच्छा सोची। इस बुड्ढे की कहानी बड़ी अच्छी होगी। लिवा चलो इसे। बंजो तुम्हारी कहानी हम लोग भी सुनेंगे। चलो।
इन्द्रदेव ने कहा—अच्छा तो होगा।
चौबेजी ने कहा—अच्छा तो होगा सरकार! मैं भी मधुवा को साथ लिवा चलूंगा। शायद फिर घुटना टूटे, तेल मलवाना पड़े और इन गायों को भी हांक ले चलूं, दूध भी—
सब हँस पड़े; परंतु बुड्ढा बड़े संकट में पड़ा। कुछ बोला नहीं; वह एकटक शैला का मुंह देख रहा था। एक अपरिचित! किंतु जिससे परिचय बढ़ाने के लिए मन चंचल हो उठे। माया-ममता से भरा-पूरा मुख!
बुड्ढा डरा नहीं, वह समीप होने की मानसिक चेष्टा करने लगा। साहस बटोरकर उसने कहा—सरकार! जहां कहिए, वहीं चलूं।
चारों ओर ऊंचे-ऊंचे खंभों पर लंबे-चौड़े दालान, जिनसे सटे हुए सुंदर कमरों में सुखासन, उजली सेज, सुंदर लैंप, बड़े-बड़े शीशे, टेबिल पर फूलदान, अलमारियों में सुनहरी जिल्दों से मढ़ी हुई पुस्तकें—सभी कुछ उस छावनी में पर्याप्त है। आस-पास, दफ्तर के लिए, नौकरों के लिए तथा और भी कितने ही आवश्यक कामों के लिए छोटे-मोटे घर बने हैं। शहर के मकान में न जाकर, इन्द्रदेव ने विलायत से लौटकर यहीं रहना जो पसंद किया है, उसके कई कारणों में इस कोठी की सुंदर भूमिका और आसपास का रमणीय वातावरण भी है। शैला के लिए तो दूसरी जगह कदापि उपयुक्त न होती। छावनी के उत्तर नाले के किनारे ऊंचे चौतरे की हरी-हरी दूबों से भरी हुई भूमि पर कुर्सी का सिरा पकड़े तन्मयता से वह नाले का गंगा में मिलना देख रही थी। उसका लंबा और ढीला गाउन मधुर पवन से आंदोलित हो रहा था। कुशल शिल्पी के हाथों से बनी हुई संगमरमर की सौंदर्य-प्रतिमा-सी वह बड़ी भली मालूम हो रही थी। दालान में चौबेजी उसके लिए चाय बना रहे थे। सांयकाल का सूर्य अब लाल बिंब