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पीटा भी था?

मधुबन उत्तेजित हो उठा। उसने फिर कहा—तो भाई तुम मुझे न लिए जाओ। यह लो तुम तो बिगड़ गए। अरे मैंने तो हंसी की थी। लो वह मेरा सामान भी आ गया। चलो तुम भी, पर ऐसे नंगधडंग कहां चलोगे! पहले एक कुरता तो तुम्हें पहना दूं। अच्छा लारी पर बैठकर चलो हबड़ा, मैं कुरता लिये आता है।

ननी ने सामान से लदी हुई लारी पर उसे बैठा दिया।

मधुबन नियति के अंधड़ में उड़ते हुए सूखे पत्ते की तरह निरुपाय था। उसके पास स्वतत्रं रूप से अपना पथ निर्धारित करने के लिए कोई साधन न था। वह जेल से छूटकर हरिहरक्षेत्र चला।

कई कोस का वह मेला न जाने भारतवर्ष के किस अतीत के प्रसन्न युग का स्मरण चिन्ह है। सम्भव है, मगध के साम्राज्य की वह कभी प्रदर्शनी रहा हो। किंतु आज भी उसमें क्या नहीं बिकता। लोग तो यहां तक कहते हैं कि अब इस युग में भी वहां भूत-प्रेत बिकते

मधुबन ने अपनी दाढ़ी नहीं बनवाई थी। उसके बाल भी वैसे ही बढ़े थे। वह दूकान की चौकीदारी पर नियुक्त था।

साबुन की दुकान सजी थी। मधुबन मोटा-सा डंडा लिये एक तिपाई पर बैठा रहता। वह केवल ननी से ही बोलता। उसका स्वभाव शांत हो गया था, या अत्यधिक क्रुद्ध, यह नहीं ज्ञात होता था। ननी के बहुत कहने-सुनने पर एक दिन वह गंगा-स्नान करने गया। वहां से लौटकर हाथियों के झुंडों को देखता हुआ वह धीरे-धीरे आ रहा था।

वहां उसने दो-तीन बड़े सुंदर हाथी के बच्चों को खेलते हुए देखा। वह अनमना-सा होकर मेले में घूमने लगा। मनुष्य के बच्चे भी कितने सुंदर होते होंगे जब पशुओं के ऐसे आकर्षक हैं। यही सोचते-सोचते उसे अपनी गृहस्थी का स्मरण हो आया। उड़ती हुई रेत में वह धूसरित होकर उन्मत्त की तरह पालकी, घोड़े, बैल, ऊंट और गायों की पंक्ति को देखता रहा। देखता था, पर उसकी समझ में यह बात नहीं आती थी कि मनुष्य क्यों अपने लिए इतना संसार जुटाता है। वह सोचने के लिए मस्तिष्क पर बोझ डालता था, फिर विरक्त हो जाता था। केवल घूमने के लिए वह घूमता रहा।

संध्या हो आई। दूकानों पर आलोक-माला जगमगा उठी। डेरों में नृत्य होने लगा। गाने की एक मधुर तान उसके कानों में पड़ी। वह बहुत दिनों पर ऐसा गाना सुन सका था। डेरे के बहुत-से लोग खड़े थे। वह भी जाकर खड़ा हो गया।

मैना ही तो है, वही...अरे कितना मादक स्वर है।

एक मनचले ने कहा—वाह, महंतजी बड़े आनन्दी पुरुष हैं।

मधुबन ने पूछा-कौन महंतजी?

धामपुर के महंत को तुम नहीं जानते? अभी कल ही तो उन्होंने तीन हाथी खरीदे हैं। राजा साहब मुंह देखते रह गए। हजार-हजार रुपये दाम बढ़ाकर लगा दिया। राजसी ठाट है। एक-से-एक पंडित और गवैये उनके साथ हैं। यह मैना भी तो उन्हीं के साथ आई है। लोग कहते हैं, वह सिद्ध महात्मा है। जिधर आंख उठा दे, लक्ष्मी बरस पड़े। मधुबन को थप्पड़-सा लगा। मैना और महन्त। तब वह यहां क्यों खड़ा है? उस बड़े-से-डेरे के दूसरी ओर वह चला।