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आदर्शवाद मस्तिष्क से निकलने की चिंता में थे। दोपहर होने आयी, वह आलसी की तरह बैठा रहा।

बीरू बाबू का दल लौट आया। झोली में चावल और पैसे थे, जो अलग कर लिये गए। बीरू पैसों को लेकर साग-भाजी लेने चला गया। और लोग भात बनाने में जुट गए। बड़ासा चूल्हा दालान में जलने लगा और चावल धोते हुए ननीगोपाल ने कहा—बीरू आज भी मछली लाता है कि नहीं। भाई, आज तीन दिन हो गए, साग खाकर हारमोनियम गले में डाले गली-गली नहीं घूमा जा सकता। क्यों रे सुरेन!

सुरेन हँस पड़ा। ननी फिर बौखला उठा-पाजी कहीं का, तुझसे कहा था न मैंने कि दो-चार आने उनमें से टरका देना।

और बीरू बाबू की घुड़की कौन सहता?

मरें बीरू और सुरेन, मैं तो जाता हूं अड्डे पर। देहूं एकाध चिलम, चरस...।

बीरू के प्रवेश करते ही सब वाद-विवाद बंद हो गया था। उसने तरकारी की गठरी रखते हुए कहा-

आज भी मछली की ब्योंत नहीं लगी।

मैं तो बिना मछली के आज खा नहीं सकता—कहते हुए मधुबन ने एक रुपया अपनी कोठरी में से फेंक दिया। वह निर्विकार मन से इन बातों को सुनने का आनन्द ले रहा था। ननी दौड़ पड़ा—रुपये की ओर। उसने कहा-

वाह चाचा! तुम कहां से मेरी दुर्बुद्धि की तरह इस घर की खोपड़ी में छिपे थे। तो खाली मछली ही न कि और भी कुछ।

बीरू ने ललकारा—क्यों ने ननी, तरकारी न बनेगी? कहां चला?

जब एक भलेमानस कुछ अपना खर्च करके खाने-खिलाने का प्रबंध कर रहे हैं तब भी बीरू चाचा! चूल्हे में डाल दूंगा तुम्हारा सूखा भात...हां-कहते हुए रुपया लेकर दौड़ गया। मधुबन मुस्कुरा उठा। वह आज पूरी अमीरी करना चाहता है।

ठाट-बाट से बीरू के दल की ज्योनार उस दिन हुई। भोजन करके सबको एक-एक बीड़ा, सौंफ और लोंग पड़ा हुआ पान मिला। नारियल भी गुड़गुड़ाया जाने लगा। ताश भी निकला। मधुबन को बातों में ही मालूम हुआ कि उस घर में रहने वाले सब ठलुए बेकार हैं। इस दल से संयोजक हैं 'बीरू बाबू'। उन्होंने परोपकार-दृष्टि से ही इस दल का संघटन किया है। उनकी आस्तिक बुद्धि बड़ी विलक्षण है। अपने दल के सामने जब वह व्याख्यान देते हैं तो सदा ही मनुस्मृति का उद्धरण देते हैं। जब अनायास, अर्थात् बिना किसी पुलिस के चक्कर में पड़े, कोई दल का सदस्य अर्थलाभ कर ले आता है, उसे ईश्वर को धन्यवाद देते हुए वे पवित्र धन समझते हैं। उसे ईश्वर की सहायता समझकर दरिद्रों के लिए, अपने दल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए, व्यय करने में कोई संकोच नहीं करते। चाहे वह किसी तरह से आया हो। उन्होंने स्कूल की सीमा पर खड़े होकर कॉलेज को दूर से ही नमस्कार कर दिया था। वह तब भी व्याख्यान वाचस्पति थे। लेखक-पुंगव थे। बंगाल की पत्रिकाओं में दरिद्र के लिए बराबर लेख लिखा करते थे। मधुबन की उदारता को संन्देह की दृष्टि से देखते हुए उस दिन संघ के धन को मितव्ययिता से खर्च करने का उपदेश देते हुए जब अंत में कहा कि ईश्वर सबका निरीक्षण करता है, उसके पास एक-एक दाने का हिसाब रहता है, तब