बताया कि यहीं कहीं मिस्टर देवा नाम के एक सज्जन बैरिस्टर रहते हैं। वे प्राय: दीनदुखियों के मुकदमे बिना कुछ लिये लड़ देते हैं। मैं उन्हीं को खोजती हुई यहां तक पहुंची।
शैला घबरा गई। वह अभी तो इंद्रदेव के सर्वस्व-त्याग करने का दृश्य देखकर आई थी। उसके मन में रह-रहकर यही भावना हो रही थी, कि यदि मैं इंद्रदेव को थोड़ा-सा भी विश्वास दिला सकती, तो उनके हृदय में यह भीषण विराग न उत्पन्न होता। वह फिर अपने को ही इंद्रदेव की सांसारिक असफलता मानती हुई मन-ही-मन कोस रही थी कि तितली का यह दुख से दग्ध संसार उसके सामने अनुनय की भीख मांगने के लिए खड़ा था। वह किस मुंह से इंद्रदेव से उसकी सहायता के लिए कहे। यदि नहीं कहती है तो अपनी सब दुर्बलताएं तितली से स्वीकार करनी होंगी। जिसको हम प्यार करते हैं, जिसके ऊपर अभिमान करने का ढोंग कई बार संसार में प्रचलित कर चुके हैं, उसके लिए यह कहना कि 'वह मझसे अप्रसन्न है. मैं नहीं...' कितनी छोटी बात है! वह कैसे निराश करती। उसने तितली से कहा-अच्छा, ठहरो। मैं आज इसका कोई उपाय करूंगी तितली! क्या यह जानती हो कि यह मिस्टर देवा कोई दूसरे नहीं, तुम्हारे जमींदार इंद्रदेव ही हैं।
तितली सन्न हो गई। उसने चारों ओर निराशा के सिंधु को लहराते हुए देखा। वह रो पड़ी और बोली-बहन! तब मुझे छुट्टी दो। मैं जाऊं, कहीं दूसरी शरण खोजूं!
प्यार से उसकी पीठ थपथपाते हुए शैला ने कहा-नहीं, तुम दूसरी जगह न जाओ, मैं आज अपनी ही परीक्षा लूंगी। तुमको यह नहीं मालूम कि आज ही उन्होंने अपनी जमींदारी का सर्वस्व त्याग दिया है।
- क्या कहती हो बहन!
हां तितली! इंद्रदेव ने अपने ऐश्वर्य का आवरण दूर फेंक दिया है। वह भी आज हमीं लोगों के-से श्रमजीवी-मात्र हैं। मझे तम्हारे लिए बहत-कुछ करना होगा। गांव का सुधार करने मैं गई थी। क्या एक कुटुंब की भी रक्षा न कर सकूगी? चलो तुम मेरे कमरे
- में नहा-धोकर स्वस्थ हो जाओ। मैं इंद्रदेव से पूछकर तुमको बुलाती हूं।
इतना कहकर शैला ने तितली का हाथ पकड़कर उठाया और अपनी कोठरी में ले गई।
उधर इंद्रदेव चाय की टेबल पर बैठे हुए शैला की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनका हृदय हल्का हो रहा था। त्याग का अभिमान उनके मुंह पर झलक रहा था और उसमें छिपा था एक व्यंग्य भरा रूठने का प्रसंग। शैला भी क्या सोचेगी। मन में मनुष्य अपने त्याग से जब प्रेम को आभारी बनाता है तब उसका रिक्त कोश बरसे हुए बादलों पर पश्चिम के सूर्य के रत्नालोक के समान चमक उठता है। इंद्रदेव को आज आत्मविश्वास था और उसमें प्रगाढ़ प्रसन्नता थी।
शैला आई और धीरे-से एक कुर्सी खींचकर बैठ गई। दोनों ने चुपचाप चाय की प्याली खाली कर दी। फिर भी चुप! दोनों किसी प्रसंग की प्रतीक्षा में थे।
परंतु इंद्रदेव का हृदय तो स्पष्ट हो रहा था। उन्होंने चुप रहने की आवश्यकता न समझकर सीधा प्रश्न किया-तो मैं समझता हूं कि, कल तुम धामपुर जाओगी आज तो यहीं कोठी पर रुकना पड़ेगा क्योंकि मैंने तुम्हारा अधूरा काम पूरा कर दिया है। उसे तो जाकर मां से कहोगी ही! फिर समय कहां मिलेगा। कल सवेरे जाओगी। एं!
शैला मेज के फूलदार कपड़े पर छपे हुए गुलाब की पंखुड़ियां नोच रही थी? सिर