दो।
सब लोग हाथ-मुंह धोकर अपनी कुर्सियों पर आराम से बैठे ही थे कि सरूप ने आकर कहा-बैरिस्टर साहब से मिलने के लिए एक स्त्री आई है। उसका कोई मुकद्दमा है।
सब लोग चुप रहे। शैला सोच रही थी कि क्या स्त्रियां सचमुच धन की लोलुप हैं। फिर उसने स्वयं ही उत्तर दिया-नहीं, समाज का संगठन ही ऐसा है कि प्रत्येक प्राणी को धन की आवश्यकता है। इधर स्त्री को स्वावलम्बन से जब पुरुष लोग हटाकर, उसके भाव और अभाव का दावित्व अपने हाथ में ले लेते हैं, तब धन को छोड़कर दूसरा उनका क्या सहारा है?
- इतने में सरूप गरम कमरे में चाय की प्याली सजाने लगा।
- नंदरानी भोजन करने बैठी। उससे खाया न गया।
दालान में परदे गिरा दिए गये थे। ठंडी हवा चलने लगी थी। किंतु नंदरानी झटपट हाथ-मुंह धोकर पान मुख में रखकर वहीं एक आरामकुर्सी पर अपनी ऊनी चादर में लिपटी हुई पड़ी रही; उसके मन में संकल्प-विकल्प चल रहा था। आज तक का त्याग, कुछ मूल्य पर बिकने जा रहा है। उसका मन यह मूल्य लेने से विद्रोह कर रहा था। तब भी जीवन के कितने निराशा भरे दिन काटने होंगे। ज्योतिषी ने कह दिया है कि बाबू मुकुंदलाल अब अधिक दिन जीने के नहीं हैं-उनका भीतरी शरीर भग्न पोत की तरह काल-समुद्र में धीरे-धीरे धंसता जा रहा है, फिर भी, उस ऊर्जस्वित आत्मा का सेतु अभी डुबा देने वाले जल के ऊपर ही है। उनकी अवस्था पचास वर्ष की और नंदरानी की चालीस की है। किंतु संसार जैसे उनके सामने अंतिम घड़ियां गिन रहा है। गृहस्थ जीवन के मंगलमय भविष्य में उनका विश्वास नहीं। उसमें रहते हुए भी पुराना संस्कार, उन्हें थके हुए घोड़े के लिए टूटा हुआ छकड़ा बन रहा है, वह जैसे उसे घसीट रहे हैं।
किंतु मुकुंदलाल के लिए यह अवस्था तभी होती है जब वह नंदरानी को अपने जीवन के साथ मिलाकर देखते हैं। फिर जैसे अपने स्थान को लौटकर सितारी, मित्र वर्ग और उनके आतिथ्य-सत्कार में लग जाते हैं।
नंदरानी खिन्न होकर सो गई। उसने नहीं जाना कि कब शैला और इंद्रदेव दूसरी ओर चले गए।
मुकुंदलाल ने सोने के कमरे में जाते हुए देखा कि नंदरानी अभी वहीं पड़ी है। वह एक क्षण तक चुपचाप खड़े रहे। फिर दासी को बुलाकर धीरे-से कहा-कुछ और ओढा दो। न जागे तो यहां आग भी सुलगा दो। देखो, परदे ठीक से बांध देना। यहां गरम रहे, तुम्हारी मालकिन थक गई हैं।-फिर सोने चले गए।
दूसरे दिन, बरकतअली ने स्टाम्प इंद्रदेव के पास भेज दिया और बाहर मिलने की आशा में बैठा रहा। जब बारह बजने लगा तब घबरा कर कोठी के बाहर निकल आया और आम के पेड़ के नीचे बैठी हुई एक स्त्री से उसने कहा-मां जी! आज बैरिस्टर साहब एक काम में फंसे हुए हैं। आप जाइए, कल आपका काम हो जाएगा।
- वह सिर झुकाए हुए बोली-कल कब आऊं?
- आठ बजे।
तब मैं जाती हूं-कहकर स्त्री धीरे-से उठी और बंगले के बाहर हो गई।