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सम्पत्ति मां को दे देना चाहता हूं। मेरे परम आदर की वस्तु 'मां का स्नेह' जिसे पाकर खोया जा सके, वह सम्पत्ति मुझे न चाहिए। और मैं उसे लेकर भी क्या करूंगा? अधिक धन तो पारस्परिक बंधन में रहने वाले को...

शैला चौंककर बोल उठी-तो क्या तुम संन्यासी होना चाहते हो? इंद्रदेव! अंत में यह कलंक भी क्या मुझको मिलेगा।

इंद्रदेव इस अप्रिय प्रसंग से ऊब उठे थे। इसे बंद करने के लिए कहा-अच्छा, इस पर फिर बातें होगी। अभी तो चलो, वह देखो, भाभी का नौकर बुलाने के लिए आ रहा होगा। आओ, कपड़ा बदलना हो तो बदलकर झटपट तैयार हो लो।

शैला हंस पड़ी। उसने पूछा-तो क्या यहां किसी की साड़ियां भी मिल जाएंगी? मुझे तो तुम्हारी गृहस्थ-बुद्धि पर इतना भरोसा नहीं!

इंद्रदेव लज्जित-से खीझ उठे। शैला हाथ-मुंह धोने के लिए चली गई। इंद्रदेव क्रमश: उस घने होते हुए अंधकार में निश्चेष्ट बैठे रहे। शैला भी आकर पास ही कुर्सी पर बैठकर तितली की छोटी-सी सुंदर गृहस्थी का काल्पनिक चित्र खींच रही थी। दासी लालटेन लेकर शैला को बुलाने के लिए ही आई।

इंद्रदेव ने कहा-चलो शैला!

दोनों चुपचाप नंदरानी के बंगले में पहुंचे। दालान में कम्बल बिछा था। मुकुंदलाल कम्बल के एक सिरे पर बैठे हुए छोटी-सी सितारी पर ईमन का मधुर राग छेड़ रहे थे। दमचूल्हे पर मटर हो रही थी। उसके नीचे लाल-लाल अंगारों का आलोक फैल रहा था। लालटेन आड़ में कर दी गई थी, बाबू मुकुंदलाल को उसका प्रकाश अच्छा नहीं लगता था।

नंदरानी उस क्षीण आलोक में थाली सजा रही थी। सरूप निःशब्द काम करने में चतुर था। वह नंदरानी के संकेत से सब आवश्यक वस्तु भण्डार में से लाकर जुटा रहा था।

शैला और इंद्रदेव को देखते ही मुकुंदलाल ने सितारी रखकर उनका स्वागत किया। शैला ने नमस्कार किया। सब लोग कम्बल पर बैठे। नंदरानी ने थाली लाकर रख दी। इंद्रदेव ने शैला का परिचय देते हुए यह भी कहा कि-आप हिंदू-धर्म में दीक्षित हो चुकी हैं। आपने धामपर में गांव के किसानों की सेवा करना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है।

नंदरानी विस्मित होकर शैला के मौन गौरव को देख रही थी। किंतु मकंदलाल का ललाट, रेखा-रहित और उज्ज्वल बना रहा। जैसे उनके लिए यह कोई विशेष ध्यान देने की बात न थी। उन्होंने मटर का एक पूरा ग्रास गले से उतारते हुए कहा-भाई इंद्रदेव, तुम जो कह रहे हो, उसे सुनकर मिस शैला की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। यह भी एक तरह का संन्यास-धर्म है। किंतु मैं तो गृहस्थ नारी की मंगलमयी कृति का भक्त हूं। वह इस साधारण संन्यास से भी दुष्कर और दम्भ-विहीन उपासना है।

नंदरानी ने कुछ सजग होकर अपने पति की वह बात सुनी। उसके अधर कुछ खिल उठे। उसने कहा-इंद्रदेव जी, और क्या दूं?

मुकुंदलाल ने थोड़ा-सा हंसकर कहा-अपनी-सी एक सुंदर सह-धर्मिणी। शैला के कर्णमूल लाल हो उठे। और इंद्रदेव ने बात टालते हुए कहा-मैं समझता हूं कि भाभी जानती होगी कि इस अपने पेट के लिए जुटाने वाले मनुष्य को, उनकी-स्त्री की आवश्यकता नहीं हो सकती।