पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/७८

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आस्था की भाँति अभीष्ट अर्थ देने लगी । सूफी भी उनकी सहायता से अपने मत का निरूपण करने लगे। उनकी आस्था मुसलिम परिधान में चमक उठी। मुहम्मद साहब के संसार से उठने ही ईमान को लेकर इसलाम में कई मत खड़े हुए। आप्त वचन और आत्मप्रेरणा का विरोध चल पड़ा । कुरान की बातों पर विश्वास करना एक बात थी और उसको मन, वचन एव कर्म से अक्षरशः सत्य मानना बिलकुल दूसरी बात । इसलाम के कर्मचतुष्टय-सलात, जकात, सौम तथा हज—में किया ही मुख्य है । चाहें तो हम इन्हें इसलामी दीक्षा के साधन मान सकते हैं । अल्लाह की एकता और मुहम्मद की दूतता की सिद्धि में ही उक्त उपचार किए जाते हैं । अल्लाह को अलग कर देने पर किसी 'अह किताब' के लिये शेष पंचक का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता । मुहम्मद, सलात, जकात, सौम एवं हज्ज में क्रमशः पीर, आराधन, दान, तप, एवं तीर्थ का विधान है जो सभी मतों में मान्य हैं । इस दृष्टि से विचार करने पर साध्य एवं साधन की तद्रूपता प्रत्येक धर्म में सिद्ध हो जाती है । ईमान अंगी और इसलाम अंग जान पड़ता है। इसलाम सीमित और ईमान असीम है। इसलाम पर ईमान लाया जाता है ईमान पर इसलाम नहीं। इसलाम के बिना भी ईमान बना रहता है, पर ईमान के बिना इसलाम किसी काम का नहीं रह जाता। कुरान में ईमान के संबंध में जो कुछ कहा गया है उसका निष्कर्ष है कि अल्लाह, रसूल, किताब, फरिश्ते एवं कयामत को सत्य मानना ईमान है । हदीस या मुहम्मद साहब के मत में अल्लाह, फरिश्तों, किताबों, रसूली, कयामत और हश्र जिस्मानी में विश्वास रखना ही ईमान है। फकीहों ने भी अल्लाह, फरिश्तों, किताबों, रसूलों, कयामत, जजा और सजा, मीजान, जन्नत और दोजख आदि में विश्वास रखने को ईमान कहा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि इसलाम की सनद के लिये यह अनिवार्य है कि सूफी, अल्लाह, फरिश्तों, किताब, रसूल एवं कयामत की सत्यता का प्रतिपादन करें और उन पर ईमान लाएँ । इसलाम में कयामत तथा आखिरत के संबंध में जो विवाद हुए उनका आभास उसके विधि विधानों में मिलता है । सूफियों को वास्तव में तीन दलों का समन्वय करना था। एक तो कुरान, हदीस, सुन्ना का, दूसरे