पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/५४

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३. परिपाक मादन-भाव ने किस प्रकार मत का रूप धारण कर लिया, इसका कुछ निदर्शन गत प्रकरण में हो गया। अब हमें देखना यह है कि किस प्रकार उसकी इसलाम में प्रतिष्ठा हुई और वह सूकीमत के रूप में विख्यात हुअा। सूफीमत का वास्तव में इसलाम से वही संबंध है जो किसी दर्शन का किसी मार्ग से होता है। सूफीमत भी इसलाम की तरह अपनी प्राचीनता का पक्षपाती है। इसलाम की भाँति ही उसके प्रसार में भी कुरान का पूरा योग रहा है। कुछ लोगों का तो कहना ही है कि सूफी शब्द की व्युत्पत्ति मदीने के उस चबूत से है जिस पर बहुत मे संत आकर बैठते थे और मसजिद के दान से अपना जीवन-निर्वाह करते थे। कुछ भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि 'हेरा' की गुहा में मुहम्मद साहब का जो दर्शन हमें मिला वह सर्वथा सूफियाना था । कुरान उसी अभ्यास का फन्न था। समझ में नहीं आता कि मुहम्मद साहब ने उस मार्ग की उचित व्यवस्था क्यों नहीं की, जिसके प्रसाद से उनको अल्लाह के अंतिम और प्रिय रसूल होने की सनद मिली। कुरान में अल्लाह के जिस स्वरूप का परिचय दिया गया उसकी जिस शक्ति, अनुकंपा और क्षमा का प्रस्ताव किया गया, उसका समीक्षण अन्यत्र किया जायगा। यहाँ तो केवल यह कहना है कि कुरान में कतिपय स्थल इस ढंग के अवश्य हैं जिनके आधार पर शब्द-शक्ति की कृपा से सूफीमत का प्रतिपादन इसलाम के भीतर भली भांति किया जा सकता है। भक्ति में, चाहे उसकी भावना किसी प्रकार की क्यों न हो, उपास्य की सन्निकटता अनिवार्य होती है। प्रपन्न मुहम्मद जब कभी सेना, शासन, संग्राम आदि से शिथिल हो किसी चिंतन के उपरांत अल्लाह की शरण लेते और उसके बालोक का अाभास देते तब उसमें कुछ न कुछ वह झलक पा ही जाती (१) स्टडीज इन तसव्वुफ, पृ. १२१ ।