पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२३९

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत संतों में नए सिरे से परम रनि का प्रचार हुआ तो इसमें आश्चर्य हो क्या ! होना भी तो यही था? ममोहियों का पालंबन म्यूफियों के प्रेत्र के प्रालंबन से अधिक स्पष्ट और सीधा था। मसीह और उनको चिर कुमारी मा को त्रयोमें स्थान मिल चुका था। ममोह ने विरति का प्रतिपादन किया था। इसलाम की भांति ममीही मत में विवाह अाधा स्वर्ग न था। मसीही संत किसी भी दशा में लौकिक प्रेम को अन्नाफिक प्रेम की सीडी नडों समझ सकते थे। उनकी दृष्टि में किसी को काम भाव से देखना पाप था। निदान, उनको परम प्रेम के प्रसार के लिये स्पष्टतः परम अानंबर बुनना पड़ा। उनके यहाँ मसीह और कुमारी मरियम की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। उनकी अलौकिकता में मसीहियों को संदेह न था। ममीही संतों के सामने मसीह और मरियम को रूपरेखा आ चुकी थी। फलतः उन्होंने अपनी अपनी वासना वा रुचि के अनुकूल मसीड वा मरियम को अपनी रति का आलंबन बनाया । किमी कठोर 'अमरद' की आवश्यकता उनको न पड़ी। मूफिया के परम प्रेम से मनाहियों को प्रोत्साहन मिन्ना। उनके आलंबन का मार्ग प्रशस्त हो गया । मुपलिम शासन में जो मसाही थे उन पर तो सूफियों का प्रभाव पड़ ही रहा था, अन्य देशों से भी लोग स्पेन में अध्ययन करने आते थे। उस समय स्पेन मसादियों का विद्या-गुरु तथा यूरोप का शिक्षक था । टोलेडो में विद्या का केंद्र था। सिमली में भी मुसलिम शासन स्थापित हो गया था। रोमा में भी सूफी प्रेम प्रचार कर रहे थे । क्रूसेड का संघर्ष इसलाम से था ही। यूरुसेलम (1) पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा को वास्तव में ममाहो त्रयो कहते है । पवित्र आत्मा का स्थान कुमारी माता को क्यों भिला? यह भी चिन्त्य है। किन्तु इतना तो प्रकट हो है कि मध्ययुग में कुमारी मरियम को उपासना स्कूल दुई और यह इसी का परिणाम है कि 'हौवा' को सन्तान 'मुक्ति को खान' बनी किसी भी वीर के लिये परमात्मा के साथ ही प्रमदा को पूजा भी अनिवार्य हो गई। इसके लिये विशेषतः देखिए, 'दी लेगसी श्राव दी भिडिल एजेज़' पृ० ४०४,४०६ ।