पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१९०

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साहित्य हुए मनुष्य के जो नाना व्यापार होते हैं, प्राणियों में परस्पर जो नाना संबंध स्थापित हो जाते हैं, हृदय में जो नाना प्रकार के भाव उठते हैं, मनोरागों के जो भौति भौति के कल्लोल होते हैं, उनके विषय में सूफी कवि सर्वदा मौन ही रहे हैं। उनके यहाँ तो बस केवल प्रेम का प्रसंग छिड़ा है, साकी की पुकार मची है, शराब का ग्याला ढला है। और यदि कभी इससे फुरसत भी मिन्नती है तो वही चमन का रोना है, कहीं मानव-जीवन का देखना नहीं । जिन्होंने देखा भी है भरपूर नहीं ; इधर उधर से कोई कोना झाँक भर लिया है । हो, हिन्दी भाषा के कवियों में कुछ और अवश्य क्रिया है। मलिक मुहम्मद जायसी की 'पदमावत' में क्या नहीं है ? प्रेम के प्रसंग में भी यह स्मरण रखना चाहिए कि इन सूफियों के सामने केवल मादन भाव रहा है । एक रति के आधार पर भारतीय भक्त न जाने कितने भावी की भक्ति करते हैं, किंतु ले दे के सूफी वहीं रह जाते हैं। मादनभाव से रत्ती भर भी नहीं डिगते । बस, मुसलिम दास्यभाव का हामी और सूफी मादनभाव का भूखा है। माधुर्य भाव पर भी वह विशेष ध्यान नहीं देता। मादनभाव में भी केवल पूर्व राग का वर्णन खुल कर करता है। पूर्वराग में ही वियोग इतना प्रगल्भ हो उठता है कि प्रेम की सारी अवस्थाएँ उसपर वहीं उतर पाती हैं और उसका निधन तक हो जाता । सूफी इसीको प्रणय समझते हैं । सारांश बह कि सूफी-काव्य में विप्रलंभ ही प्रधान है और सर्वत्र उसी का राज्य है। विश्वसाहिल्म के इस क्षेत्र में सूफियों की ओड़ नहीं । वसुधा का प्रेम साहित्य आज सूफियों के प्रेम से प्रभावित है। सचमुच सूफी कविता ईरान के उल्लास और पतन की मुदा है। उसके द्वारा हम उसके हृदय में पैठ सकते हैं: पुरुषार्थ में नहीं। इसके लिये हमें कहीं अन्यत्र जाना होगा।