पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१४४

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भावना निमग्न रहना है। सूफियों के प्रेम में एक बात विचारणीय है । उनकी भक्ति-भावना मादन भाव की होती है तो उनका स्थायी भाव रति ही है जिसका श्रालंबन अल्लाह है। इसलाम में अल्लाह यह नहीं देख सकता कि उसके बंदे उसे छोड़कर और किसी से प्रेम करें। अतः अल्लाह के बंदों में भी इस प्रकार की असूया का आभास श्राश्चर्य की बात नहीं । सामान्य प्रेम में भी प्रेमी अपने को उत्सर्ग कर देता है, प्रिय का सेवक बन जाता है, उसी के इशारे पर चलता है; किन्तु तो भी यह नहीं देख सकता कि उसके अतिरिक्त किसी अन्य का संबंध भी उससे हो और वह चुप. चाप सेवा में लगा रहे । फलतः सूफी भी रकीरों को देख कर जल भुनते हैं और उस को साझी समझ कोसते रहते हैं । उनका यह 'डा' देखने के योग्य होता है। सूफियों की भक्ति-भावना में प्रणिधान का अर्थ दास्य हो गया है । यह इसलाम का प्रधान भाव है । सूकी परमेश्वर के प्रेमी दास हैं। उनके प्रेम में आवेग, मद, उन्माद, मूर्छा और मरण आदि भावों का व्यापक प्रसार है। उनमें मादन का तीक्ष्ण आलोडन है । तड़प, हाहाकार आदि सूफियों की भक्ति में भरे पड़े हैं। उनमें उद्वेग है, आवेश है, अर्मष है, ईर्ष्या है। उनमें भावों की उग्रता अधिक है मृदुता कम । मंद, मंथर और शांत भावों की कमी चित्त की कोमल वृत्ति को चोट पहुँचाती है तो, पर सूफियों को कोमल संसार में रहना कब पड़ा जो इसका ध्यान रख सकते ! भाव भी तो परिस्थिति से ही रंग पकड़ते और कोमल तथा उग्र रूप में व्यक्त होते रहते हैं ?