पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१३८

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भावना १२१ की अावश्यकता का मुख्य प्रयोजन यह है कि इसलामी अल्लाह सगुण और साकार होने पर भी अवतार नहीं ले सकता; उसके तो रसूल ही भूमि पर आते हैं। मनोरागों के लगाव के लिए जिस संपर्क की बांछा होती है वह इसलाममें नहीं थी। मूर्त के प्रेमी किस प्रकार अमूर्त के विरह में तड़प तड़पकर इधर-उधर बिखर पड़े थे, इसकी जानकारी हमको प्रसंगवश होती रही है। सूफियों के लिए भी यह असंभव था कि अल्लाह को माशूक बनाकर उसे कोसें, उसके रकीबों को भला-बुरा कहें, उसके मुंह और भावभंगी का खुलकर वर्णन करें और फिर भी सहीसलामत, जीते-जागते बचे रहें। इसलिए इस घोर युग में उनके प्रेम के अाधार अमरद ही बने । बेचारी रमणी तो परदे में पड़ी थी। उसकी पूछ कहाँ ? दगरे, भाषा ने भी इनकी पूरी सहायता की। फारसी क्रिया में कोई लिंगभेद तो था नहीं कि प्रालंबन का भेद चट खुल जाता। जो हो सूफियों के प्रालंबन अमरद ही बने जो परोक्षरूप में प्रियतम के प्रतीक थे और प्रत्यक्ष रूप में अमीरों के माशक भी। अतः उनकी रति भी सदा रति ही बनी रही और कभी श्रद्धा का रूप धारण कर भक्ति की कोटि में न आ सकी । यही कारण है कि सुफी भक्त नहीं आशिक ही कहे जाते हैं और रति ही उनकी परम निष्ठा होती है । 'काम मिलावै राम को' को जितना सूफी समझ सकता है उतना कोई भक्त नहीं । सूफियों की भक्ति-भावना में उनके उद्दीपन की उपेक्षा हो नहीं सकती। सूफी तो प्रायः कण-करण से उद्दीप होते रहते हैं। उद्दीपन के विश्लेषण से व्यक्त होता है कि उसके तीन अंग हैं । प्रथम तो बालंबन के हाव-भाव, द्वितीय प्रकृति के राग- रंग और तृतीय आलंबन के संबंधी । सूफियों के प्रालंबन के विषय में हम देख ही चुके हैं कि वह अधिक से अधिक आँखमिचौनी खेल सकता है, कभी हमारी आँखों के सामने देर तक टिक नहीं सकता। रही उसकी चेष्टाओं की बात । सो उसके संबंध में यही समझ लेना चाहिए कि सूफी ब्यक्तिविशेष के हाव-भाव को उसी की चेष्टा अथवा भाव-भंगी का फल समझते हैं। फलतः प्रकृति में जो कुछ विभाव गोचर होता है उसको उसी की अदा समझते हैं और उसी को उसके प्रेम का प्रसाद