पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१३६

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भावना साधन जो सहसा हमारे सामने आ जाता है वह उपस्थ अथवा रति ही है। रति में आनंद का प्रादुर्भाव तो होता ही है, संतान हमारी शाश्वत सत्ता भी स्थिर रखती है ; परंतु इस आनंद और इस अमृतत्व में तृप्ति नहीं मिलती, प्रत्युत इनसे तो तृष्णा की ही वृद्धि होती है । अथच, सूफियों को सामान्य रति में वह संतोष न मिला जिसके वे भूखे थे । उनको उसमें तो उसका संकेत भर मिल सका । तब सूफियों ने देखा कि जिसको हम रति का यथार्थ बालंबन समझते हैं वह तो उसका सञ्चा बालंबन नहीं, विभूति मात्र है। उसका वास्तविक आलंबन तो वही विभु होगा जिसके प्रसाद से हमें इस रति-प्रक्रिया में भी अमृतत्व एवं आनंद की आभा मिलती है: यदि वह अभृत स्वरूप और आनंदमय न होता तो संसार का संसरण भी मंगलमय न होता। संसार भी तो उसी के संकेत पर चल रहा है और उसी के अदा पर मुग्ध है, फिर उसकी उपेक्षा कैसे की जा सकती है ? किन्तु उस परम आलंबन के साक्षात्कार के पहले ही हमें उसकी मर्यादा का बोध हो जाना चाहिए । सूफियों की धारणा है कि वस्तुतः वही आश्रय है । वही हमें अपनाने के लिये अपनी माया दिखा रहा है। सृष्टि के रोम रोम में जो झलक दिखाई दे रही है वह उसी की झाँकी है जो हमें लुभाने के लिये ही हो रही है। सितारे चमक-दमक के साथ उसकी ओर खिंचे जा रहे हैं, चाँद उसी की ओर बढ़ा जा रहा है, सूरज भी उसी के फेर में पड़कर जल रहा है, संक्षेप में, उसने चारों ओर प्रेम का वीज बखेर दिया है जिसने उगकर सबको श्रालंबन से श्राश्रय बना लिया है और इसी से हम भी उसके वियोग में पड़ गए हैं। यदि वह न चाहता तो हमें क्या पड़ी थी कि हम उसे चाहते, उसके विरह में मग्न रहते, घुलते और नाना प्रकार के उपद्रव सह मरते-मिटते सदा उसी की याद करते ! हम तो खाने-पीने, भोग-विलास में ही मस्त थे ; हमें उसको सुधि कहाँ थी जो उसके वियोग में भाँवरें भरते? तो जब विभु की विमोहन शक्ति ही का यह सारा प्रसार है तब इसमें भय, विस्मय, क्रोध, जुगुप्सा आदि भावों के लिये स्थान कहाँ ? भयभीत तो हम उस दशा में हो सकते हैं जब हम उसके स्वभाव से अपरिचित हों और उसकी चाल-