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जिसने अपने सहज विकास में सूफी साहित्य का रूप धारण किया और जिसका यह तुच्छ सेवक सदा से उपासक रहा है।

हाँ, तो कहना यह था कि काशी-विश्व-विद्यालय का डाक्टर बनने के लिये जो रचना रची गई वह उस समय 'भूमिका' से आगे न बढ़ सकी। बढ़ती भी कैसे? जब उस समय विश्व-विद्यालय ही छोड़ दिया गया! परन्तु इतना हुआ अवश्य कि उस समय उसकी 'सारिणी' 'करणिक' महोदय के पास पहुंच गई और अपने आग्रह तथा रायबहादुर (डाक्टर) श्यामसुन्दरदासजी के पुरुषार्थ तथा महामना कुलपति मालवीयजी की अनुकंपा से हिन्दी भाषा में भी लिखकर डाक्टर बनने को अनुमति मिल गई और यह प्रकट हो गया कि कुछ मूर्तियों को छोड़कर वस्तुतः हिन्दू-विश्व-विद्यालय में भी कोई हिन्दी का विरोधी नहीं, और यदि है भी तो अपने विरोध के कारण हिन्दी के विरोध के कारण कदापि नहीं। आज भी अपनी धारणा यही है। आज की स्थिति को कौन कहे।

'तसव्वुफ अथवा सूफीमत' की रचना 'परिशीलन' की ही दृष्टि से नहीं 'परिचय' की दृष्टि से भी हुई है। इस पुस्तक को प्रस्तुत करने का ध्येय वास्तव में यह रहा है कि एक ओर तो पाठक वस्तुतः तसव्वुफ के मूल में पैठ जायें और दूसरी ओर उसकी प्रगति में रमते हुए शामी मतों के रूप से भी अभिज्ञ हो जायँ। साथ ही हिन्दी के सूफी साहित्य के अध्ययन की भूमिका तो यह है ही। सच पूछिए तो हिन्दो में सूफी-सम्प्रदाय दो रूपों में हमारे सामने आया है। इसमें से एक को तो हम 'आज़ाद' सूफियों का सम्प्रदाय कहते हैं और दूसरे को 'सालिक' सूफियों का। प्रथम से हमारा तात्पर्य उन सूफियों से है जो वस्तुतः स्वतन्त्र विचार के थे और अपने अनुभव के सामने किसी 'कुरान-पुरान' अथवा 'विधि-विधान' को कुछ नहीं मानते थे और दूसरे से उनसे जो इसलाम के पक्के भक्त पर उदार और हृदयालु थे और कुरान की बात हृदय में भी खूब देखते थे। हम इन्हीं इसलामी सूफियों को सच्चे अर्थ में सूफी कह सकते हैं, ऐसी बात नहीं। हाँ, तसव्वुफ का इसलामी प्रसार इन्हीं में है, इसमें सन्देह नहीं। आशा है, इन दोनों प्रकार के सूफियों के अध्ययन में इससे सहायता मिलेगी।