पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/११७

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१०० तसव्वुफ अथवा सूफीमत लिये उन्हीं का नाम लेते हैं। किसी भी वस्तु के मूल में पैठ कर उसके रहस्य को खोलने की मनुष्य में जो सहजात कामना है वह दृश्यों को दिव्यता में किसी नित्य देवता का आभास पाती है और उस देवता की प्राप्ति के लिये लालायित हो उठती है। पृथिवी, अंतरिक्ष, आकाश आदि की परिक्रमा से श्रांत हो जब हम अपने शरीर का अनुशीलन करते हैं तब उसमें भी मन, बुद्धि, प्राण, श्रात्मा आदि ऐसे सूक्ष्म तत्त्व गोचर होते हैं जिनको हम प्रतीक के रूप में ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार प्रकृति के नाना रूपों में हमारे भावों के लिये स्थूल-सूक्ष्म, मूर्त-प्रमूतं, सभी तरह के प्रतीक मिल जाते हैं। किन्तु केवल प्रतीकों से हमें संतोष तो नहीं होता ? कारण कि हम तो उस परम संबंधी की खोज में निकल पड़े हैं जिसके अंशमात्र के प्रकाशन से किसी वस्तु को प्रतीक की पदवी प्राप्त होती है और हम उससे संबंध स्थापित कर, प्रसन्न हो लेते हैं। परन्तु उसे खोजते खोजते जब हमारा चित्त निर्मल और अहंकार रहित हो जाता है तब उसमें जिस अलौकिक आभा का प्राभास फैलता है और जिस दिव्य दर्शन का अनुभव होता है उसके प्रत्यक्षीकरण में प्रकृति के उन रूपों से सहायता लेनी ही पड़ती है जिनको हम प्रतीक के रूप में पहले से ही हृदय में बैठाए होते हैं। यदि हम प्रतीकों का प्रयोग न करें तो हमारा दिन्यदर्शन किसी के भी हृदय में उतर नहीं सकता और वह सचमुच औरों के लिये एक ऐसी पहेली बन जाता है जिसका सामान्य बुद्धि, विवेक और विश्वास से कुछ भी संबंध नहीं रह जाता। संक्षेप में वह गूंगे का गुड़ हो कर ही रह जाता है ; जिसकी व्यंजना के लिए भी गूंगे और गुड़ का उल्लेख करना ही पड़ता है। अस्तु, उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रतीक वास्तव में किसी भावना के द्योतक होते हैं, जो संस्कारों के कारण उनसे बंधी रहती है। यदि यह ठीक है तो प्रतीकों के प्रसंग में स्वयं प्रतीकों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं। जरूरत तो इस बात की है कि प्रतीकों के नाम-रूप से अलग रह उस भावना का पता लगाया जाय जिसके कारण किसी वस्तु को प्रतीक की संज्ञा मिलती है। प्रतीक जब तक किसी भाव के द्योतक या अभिभावक रहते हैं तब तक तो उनकी प्रतिष्ठा बनी रहती है ; पर ज्यों ही उनको किसी भाव की