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निवेदन

'तसव्वुफ अथवा सूफीमत' का नाम ही कुछ ऐसा बन गया है कि उसके विषय में कुछ निवेदन कर देना अनिवार्य हो गया है। बात यह है कि हिन्दी के लोग 'सूफीमत' से तो भलीभाँति परिचित हैं किन्तु 'तसव्वुफ' का व्यवहार हिन्दी में अभी नया नया हो रहा है अतः उससे लोग प्रायः अपरिचित से ही हैं। उधर उर्दू की दशा यह है कि उसके लोग तसव्वुफ का अर्थ तो समझते हैं पर सूफीमत का अर्थ नहीं जानते। ऐसी स्थिति में उचित समझा गया कि हिन्दी में तसव्वुफ का व्यवहार भी चला दिया जाय जिससे हिन्दी के लोग भी उससे अभिज्ञ हो जायें। यहाँ विचारणीय बात यह अवश्य है कि जिन सूफियों ने सूफीमत का हिन्दी में इतना प्रचार किया उन्होंने इस तसव्वुफ शब्द को ही क्यों छोड़ दिया। सो, इसका सीधा समाधान यह है कि सच पूछिए तो सूफियों ने न तो 'सूफीमत' शब्द का ही व्यवहार किया और न 'तसव्वुफ' शब्द का ही। सूफीमत का प्रयोग हिन्दी में तो 'संतमत' के आधार पर अँगरेजी के 'सूफीज़्म' के सहारे सहज में ही चल पड़ा, परन्तु 'तसव्वुफ' का कहीं नाम तक नहीं दिखाई दिया। यद्यपि विचार से देखा जाय तो 'तसव्वुफ' और 'सूफीमत' का मूल एक ही है—दोनों का माद्दा वही 'सूफ' अथवा 'साद-वाव-फे' है तथापि दोनों के बनने में बड़ा भेद है। 'सूफ' से अरबी में 'तसव्वुफ' बना बिल्कुल अपने ढंग पर किन्तु अँगरेजी तथा हिन्दी में एक ही ढंग पर 'इज्म' तथा 'मत' जोड़ देने से 'सूफीज्म' और 'सूफीमत' सिद्ध हो गए जो बराबर एक ढंग पर चलते रहे। 'तसव्वुफ' शब्द को लेकर सूफी नहीं चले थे कि उसके प्रचार का आग्रह करते नहीं, उन्हें तो अपने दीन तथा इसलाम का प्रचार करना था, कुछ अरबी भाषा और अरबी रूप का नहीं। निदान उन्होंने 'कलमा' को 'पाढत', 'कुरान' को 'पुरान' और 'इबलीस' को 'नारद' के रूप में