ठाकुर-उसक 3* ठाकुर के पौत्र आनंद अरोर जे सँजोगी भोगी भाग भरे, विकल वियोगिनको छतियां सकाती हैं वीर हाँ कहाँ लौकहीं तोसो समझाय आय, जोगिन हू केरी जोग जुगते भुलाती हैं ऐसे मैं जोपिय सो रिसाती सतरातीताती बतियाँ सुनाती ते न चातुर सुहाती है। डोरें जलधरन की सरन हिलोरें आजु, घनन की घोर धरा फोरें कढ़ी जाती हैं ।। शंकर प्रसाद (शंकर) (कविता काल १६०० के कुछ पूर्व) सीतल मंद सुगंध लिये सुचि पौन बहै रुचि कुंजन माहीं । सुर-सुता की उठे लहरै कहरें करें मोर करें धन छाहीं ॥ 'शंकर' सोभा विलास दुहून के देखत ही रति काम लजाहीं । मूल कदंब सखीन के मध्य सोलाड़िली लाल बड़े गलबाहीं ॥ कुंडल गोल कपोलन पै अरु चंदन और सुगंधन माथ में । अंग अनंग की ओप चढ़ी अरु संग न कोई सखालिये साथ मैं। ता दिन ते कवि शंकर यों कह के सर सोभरि गो निशानाथमैं। बुद प्रसेद के आनन में लख कुंद के फूल मुकुंद के हाथ में दंपति प्रीति भरे बिलसं घने कुंजन में सँग कोई सखी न है। सुंदरि ताही समै छल सो मुरली लई कान्ह के हाथ सो छोन है । शंकर काम किलोल भरी धरि पीन पयोधर पैसो प्रवीन है। मांगी जबै हरि, हेरि को लखौबाँसुरी है किया बीन नबीन है।
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