ठाकुर -सक 'चातुर' धरत धीर कैसे हून कोऊ अब, विश्वनाथ ताते विश्व-विनय सुनाइये। नीरज नयन नील नीरद बदन पाय, नीरद ते नीके नाथ नीर बरसाइये ॥१॥ जोर जल बरसान होत कौन कारन ते, दीबै खंड मंडल में सबही सुखानो सो। बूझै एक एक सो अबूझ ढे अचंभो मान, कैधौ भूमि भावती को भाग है खुटानो सो। 'चातुर' लई है क्रिधौं बरसा पकरि काहू, स्वामी सरवग्य नहि.जात खेल जानों लो। मेधन को पौरुष सो परिगो पुरानो किधौं, समुद सुखानो कै सुरेस बैकलानो सो॥२॥ बेगि सुरनाथ को बुलाय के हुकुम दीजै, कौसिला के लाल काल र डरियत है। बरसावै मेघन जुड़ावै अवनी की ताप, जोर जुग जानु पानि पाय परियत है। 'चातुर' कहत हरि हरष हिये में हर, भांतिन हमेस सबही के भरियत है । विश्वनाथ विश्व दुख मेटन कृपा के सिंधु, विश्व टेर मुनि के न देर करियत है ॥३॥ हैफमान जीव बसुधा के जसुधा के जसी, टेर टेर तोहि नीर पीर सो पिरत हैं। उमड़े अड़े हैं मड़े मंडल मही पै बांधि, घेरो बांधि बांधि छोनी छोर लौं घिरत हैं। चातुर जुरत रोज रोज ही विधर जात, छलिया न एको ठौर छिनडू थिरत हैं।
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