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ठाकुर ठसक 33 थिगरी न लागे ऊधो चित्त के चैंदोवा फटे. बिगरी न सुबरै सनेह सरदन को। आपने ई हाथ ले के करत हवाल ऐसो, कापै होनहार यों हलाल गरदन को । ठाकुर कहत हो बिचार यौँ बिचारि देख्यो, बिरनो मिले है जो सहाय दरदन को । बैर प्रीतिरोति जासौं जैसी जहां मानि लियो, एक सी निबाहिबो है काम मरदन को ॥१३॥ प्रानन प्रेम की गांस नहीं नहिं कानन बांसुरो को सुर छायो । बैनन सो न जान्यो नंदनन्दन नैनन ना ब्रजचन्द लखायो । ठाकुर हाथ न माल लई नहीं पाइन सों हरिमन्दिर धायो । नेक कियो न सनेह गोपाल सों देह धरे को कहा फल पायो । ये जो कहैं तो भले कहिबो करें मानस हाँसी सबै सहि लीजै। ने बकि आपुहिं ते चुप होहिंगी काहे की काहुवै ऊतर दीजै ।। ठाकुर मेरे मते की यहै धनि मानि के यौवन रूप पीजै। या जगमें जनमें को जिये की यह फल है हरि सो हित कीजै ।। धिक कान जो दूसरी बात सुनै अब एकहीरङ्ग रहो मिलि डोगे। दूसरो नाम कजात कढ़े रमना जो कहूँ तो हलाहल बोगे। ठाकुर यो कहती ब्रजबाल सो ह्या बनितान को भाव है भागे। ऊधो जू वे अँखियाँ जरिजायें जो साँवरो छोड़ि तक तन गोरो। विश्वना बड़ाई दई ताहि तकि प्रा कोई, ताके काज' दौरि कै दया के हेत ढरिये। ताहि धन दीजै जस लीजै जग जीवन को, सदामत दौरि दुख दीनन को हरिये।