ठाकुर-ठसक एकन की कंचुकी चुपर चारु चोवन सो, एकन की आंखन गुलाल मूठ मेलै है । एकन के संग नाचे गावै सङ्ग एकन के, एकन के संग उर आनँद सकेले है। ठाकुर कहत सहै एकन की गारी लाल, एकन को पिचकारी अंगन पै झेने है। मोहि कत लीन्हे जात बावरी सी उतै जिते, कान्ह रंगरातो रसमातो फाग खेले है॥१०॥ जानि झुकामुक्की भेख छिपाय के गागरी लै घरसे निकली ती। जानो नहीं मैं कबै केहि ओर ते आय जुरे जहां होरो धरी ती । ठाकुर दौरि परे मोहि देखत भागि बची जू कछू सुघरी ती । बीर जो द्वार न देहुँ केवार तो मैं होरिहारन हाथ परी ती।१०। अखती बर्णन। सवैया। अखती रची राधिका मोहन लो बरजोरिहि नाम लेकावती हैं। झहरावती भौंह झुकावती फेर कही जू कही जू सुनावती हैं। कह ठाकुर काम-गुरू के कहे उपमान के ओप बढ़ावती हैं रस रीति के प्रीति के प्रीतम को बिसरे मनो पाठ पढ़ावता हैं। लांबी लचकारी लौद लीन्हे हौ गोपाल लाल, सो न घाल दीजो घाले धनो रस घट है। छी जो जैहै काहू ब्रज बनिता नवेलो अङ्ग, ऍड. की तिहारी कान्ह एकहू न सटहै। ठाकुर कहत टेक एकहू न रैहै धरी, सङ्ग में सहेली एक एक तें बिकट है।
पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/५५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।