ठाकुर अप समाने बड़े मन मानिक पाय न कोरितु है।
यह प्रात को रीत सुनो हमपै करि प्रोत नहीं फिर तोरितु है।।७।
का कहिये किहि सौं कहिये तन छोजत है पै न छीजतु है।
तन को बिसराम अराम घनो करि दोजतु है पै न दीजतु है।
कवि ठाकुर भोग संयोग सबै सुख कीजतु है पै न कीजतु है।
मनभावन घारे गोपाल बिना जग जीजतु है पै न जीजतुहै ।।
दहने परो देह बियोग विथा अब आज लो काहू दही नइयाँ ।
कहने परी लाजहि छाड़ इती जिती कौनहूं ठाँव कही नइयाँ ।
कवि ठाकुर लाल अचादि करी तिहि तैं सहिये जुसही नइयाँ ।
मनमोहन को हिलबा मिलबो सपने लो भयो हमरो गुइयाँ । ७१।
तन को नर लाइबो कोने बद्यौ मन तौ मिलि गो पै मिलै जल जैसो
उनले अब कौन दुराव रह्या जिनके उर मध्य करौ सुख ऐसो ।
ठाकुर या निरधार सुनौ तुम्हें कौन स्वभाव पस्यो है अनैसो।।
• प्रानपिप्रारो सुनौ चितदै हिरदै बसि बूंघट घालिबो कैसौ ।८०
सजनी कहा ठाढ़ः भई सुचिती चल देखिये कौन के गोहन गो।
वह बेनु बजाइ रिझाइ हमें अब धेनु कहूं बन दोहन गो।
कवि ठाकुर ऐनही जानि परी अरो गुज के हारन पोहन गो ।।
कोऊ दौरियो फेरियोरी वा अहीर को मोहन मोमन मोहन गो
जिहि भांति निहारत आनि हते तिहि भाँति निहारतही नहियाँ
फिरि का तिनसौं चित दै मिलिये हित के अवगावतही नहियाँ.
कवि ठाकुर का तिनसौं कहिये करि नेह निबाहतही नहियाँ ॥
अब जान परो इसकी हमी हमको हरि चाहतहो नहियाँ ।।
दिन बीसक तोलते यह खोर है धेतु उवेरतु हो नहियाँ ।
फिर के भौज बजाइके बाँसुरी प्यारी को टेरत ही नाहियाँ
कषि ठाकुर सोच इतो चित को इ त को पग फेरत ही नहियाँ ।
यहि ओर सनेह की आँखिन सो अब तो हरि हेरत ही नहियाँ।।
-पय-दृष।