'ठोकुर कै सहुँ भूलत नाहिने ऐसी अरो वा बिलोकनि बाँकी ।
भावत ना छिन भौन को बैठिबो बूंघट कौन कोलाज कहां की |
काहु के होइ तो कोउ कहै निज जैसे मनै लगी तैसे सिखाये।
ज्यों ज्यों खरो हटको इन लोगन त्यो त्यो खरे बिगरैये सवाये।।
ठाकुर काहु रुचै न तो का करौं मोहि तो ऐसे लगे भले भाये ।
नैन हमारे हमारे मनै लग्यौ चाहे जहाई तहाई लगाये ॥५॥
अबका समझावतीको समझे बदनामीके बीजन बो चुकी री।
इतनोहूँ विचार करीतोसखी यह लोजकी साजतो धो चुकीरी।
कवि ठाकुर काम नया सबको करिप्रीति पतिव्रत खो चुकीरी ।
नेकी बदी जो लिखी हुती भालमें होनी हुतीसु तो होय चुकीरी
घर बाहर पास परोस के बैर अकेले कवै कर पैथत है।
मग मांझ कजात मिले सजनी तो बिलोकत चित्त डरैयत है ।।
कह ठाकुर भेंटबे के उपचार बिचारत धौस वितैयत है।
बतियां न बनें जिनसो कबहूं छतियां तिन्हें कैसे लगैयत ॥है६१॥
कैसो पीत एटवारो छोर छहरत जात, उलटी मुरलि खोसे अंग अलसानो सो।
लटपटे पेचन की बाँधे अटपटी पाग, नटखटी नंदको निकाइन निकानो लो।
ठाकुर कहत हित हौस अभिलाषन सो, बित्त को बिसारि चित्त चारु चकवानो सो।
लेखु धन्य भाग सोभा सुखन बिसेष देख, गोरी को गुबिंद फिर देखत दिवानो सो ।६२।
को हौ ? जोतिषी हैं। कछु जोतिष बिचारत हो? येही शुभ धाम काम जाहिर हमारो तो,
क्षाओ बैठ जाओ पानी पियौ पान खावी फेर, हौय के सुचित नेक गणित निकारौ तो।