कह ठाकुर हाथ चलै गहिये अरी जीम चलै न बन गहते ।
सखि या नंदगाँव को कौतुक रो लखते ही बनै न बनै कहते ॥
भावती रूप महाबि छाजती आवती श्रानँद सौं झिलती हो।
बूझती याते सनेह कथा कछु प्रेमके पन्धन मैं पिलती हौ ।।
ठाकुर एक दिना हित होसम काहे न आन हिये हिलती हो।
चन्द से आनन को ही कहो नितही हमको इतही मिलतीहौ।
रोज न आइयै जो मनमोहन तो यह नेक मतौ सुन लीजिये ।
प्रान हमारे तुम्हारे अधीन तुन्हें बिन देखनु कैसे कै जीजिये।
ठाकुर लालन प्यारे सुनौ विनती इतनी पै अहो चित दीजिये।
दूसरे तीसरे पाँचयें सालये आठये तो भला आइबो कीजिये ॥
का करिये तुम्हरे मन को जिनको अब लौं न सिटो दगा दीयो।
पै हम दूसरो रूप न देखिहैं आनन आन को नाम न लीगे।
ठाकुर एक सो भाव है जो लगि तौ लगि देह धरे जग जीवो।
प्यारे सनेह निबाहिबे को हम तो अपनो सोकियो अरु कीबो ।
यार ही जात लखो कुँवना तब धीरज नेक नहीं धरती है।
आपनी देखि घिनोची भरी मिस ठानि परायो कहो करती है।
ठाकुर मानती नाहीं कहो घर जात पराये नहीं डरती है।
रीति की रोसन मापनी हौंसनि पानी परोसन को भरती है।
हौं करिहौं हित फूलौ फिरैमन जानत नाही अजान है येतौ ।
या पथ पांव धरै पहिचान अहै इहमैं दुख औ सुख केतौ ।
ठाकुर जो या कथा सुनि पावतो तो सुनिबै कहूँ कान न देती।
जानतौ जौ इतनी परतीत तौप्रीति को रीति को नाम न लेतौ ।।
काल्हि कहूँ हँली बोलीगोपाल सो जानिन जाइ कहा कहो कौन !
ता छिन त कछु बावरी सी भई ए सखी साध रही गहि मौर्ने ।
ठाकुर तें फिरि पाई बुलावन कै तुहि हेरत श्याम सलौनें ।
जाद इते पर जो मिलि बैठिये तो फिर पैठिय कौन के भौने ५२।