देखत ही चित लेइ चुराइ सु या ब्रज माँझ मुनी चरचा इक ।
ताते गई चलि नंद के मन्दिर देखन नैनन को सुखदाहक ।
ठाकुर को सुखमा बरनै अरे काम लगै जिनको छवि-पाइक।
काहे न जाइँ सबै ब्रज देखन साँचहूं साँवरो देखबे लाइक ॥३२॥
येई हैं ये वृषभानुसुता जिनसों मनमोहन मोह करै हैं ।
कामिन तो उन सी नहिं दूसरि दामिन की दुति को निरे हैं ।
ठाकुर के हमहीं यह जानती के उनहूँ को जनाइ परै हैं
छोटी नथूनी बड़े मुतियान बड़ी अँखिथान बड़ी सुधरै हैं ॥ ३३॥
दीखती तो ललितादि जहां तहां हौंह गई दबि पावन गाढ़े।
चाह भरे मुख चन्दन सो चितर्वै चहुँ चित्र मनो लिखि काढ़े ॥
ठाकुर को घट को बढ़ है निरधार करें अनुरागन बाढ़े।
कुञ्ज के भौन में पुञ्ज प्रभान किशोर किशोरी बराबर ठाढ़े ३४॥
सुरभी नहि केतो उपाइ कियौ उरझी हुती चूंघट खोलन पै
अधरान पै नेक खगीही हुती अटकी हुती माधुरो बोलन पै॥
कवि ठाकुर लोचन नासिका पै मड़राह रही हुती डोलन पै
उहरै नहिं डीठि फिरै उठकी इन गोरे कपोलन गोलन पै ॥३५॥
धन्य बिधि तेरी रचना को है न पारावार,
देखि देखि विविध बखान कीजियतु है।
कोई रचे फर कोई सुधर कुरूप कोई,
कोई रूपयन्त औ बड़ाई दीजियतु है ॥
ठाकुर कहत रस रूप रडू न्यारे न्यारे,
न्यारी न्यारी प्रकृति बिचारि लीजियतु है ।
बाजे बाजे मानुषन देखे सुने भावत सु,
बाजे बाजे मानुष न देखे जी जियतु हैं ॥ ३६ ॥