करते और जोर से पढ़ते ताकि वह सुन ले । इतने के अति-
रिक्त कोई और अनुचित बासना उनके चित्त में न थी। कुछ
दिन तक तो उस सुनारिन ने इनके इस कर्तव्य पर कुछ ध्यान
न दिया परन्तु जब उसे ज्ञात हुआ कि कवि जी मेरे स्वरूप
पर मोहित हैं तब वह स्वयं किसीन किसी तरह इनको अवश्य
दर्शन देती और उस समय की रसमय कविता बड़े ध्यान से
सुनती। एक समय वह बीमारी के कारण चार दिन तक
मकान से बाहर न निकली। पांचवें दिन रात्रि को ठाकुर ने
उसके मकान के पीछे वाली गली में चलते चलते यह
सवैया कहा।
गति मेरी यही निसबासर है चित तेरी गलीन के गाहने है। चित कीन्हों कठोर कहा इतनो अब तोहि नहीं यह चाहने है। कवि ठाकुर नेकु नहीं दरसी कपटीन को काह सराहने है। मन भावै सुजान लोई करियोहमैं नेह कोनातो निबाहने है।
सुजान शब्द ने इस सवैया में जान डाल कर उसके रस को द्विगुणित कर दिया ( कहते हैं उस स्त्री का नाम सुजान था)। इस रूपरस के प्यासे कवि की बाणी ने उसके हेतु औषधि का काम किया । उसी रात्रि भर में वह चंगी हो गई कि दूसरे ही दिन पानी भरने के मिस कुएं पर आकर ठाकुर कवि को उसने दर्शन दिए ।
दुनिया बड़ी विचित्र है । जो जैसा होता है बहुधा वह मनुष्य दूसरों को भी वैसाही समझता है। उस स्त्री के घर वालों को कुछ संदेह सा हुआ और उन्होंने उस समय के विजा- वर नरेश से कवि जी की कुछ शिकायत की। महाराज जी ने उन लोगों को समझा बुझा संतोष दे बिदा किया। उनके चले जाने पर ठाकुर कवि को बुलाया और पूछा कि इस मामले में