हरि रस चन्दन चढ़ाय अंग अंगन में,
नीति को तिलक बेदी जस की दिये रहे।
ठाकुर कहत मंजु कंज ते मृदुल मन,
मोहनी सरूप धारे हिम्मत हिये रहैं।
भेट भये समये कुसमये अचाहै चाहे,
ओर लौं निवाई आँखें एकसी किये रहैं ।
हिम्मत बहादुर इस कवित्त के तर्क को समझ तो गए परन्तु क्रोध शान्त न होने के कारण फिर भी कुछ बदज़बानी कर बैठे। ठाकुर ने सरे दरबार अपनी तलवारम्यान से निकाल दी और कड़क कर यह कवित्त कहा-
सेवक सिपाही हम उन रजपूतन के,
दान युद्ध जुरिबे में नेक जे न मुरके।
नीति देन वारे हैं मही के महिपालन को,
कषि उनही के जे सनेही सांचे उरके।
ठाकुर कहत हम बैरी बेवकूफन के,
जालिम दमाद हैं अदानियां ससुर के।
चोंजन के चोर रस मौजन के पातसाह,
ठाकुर कहावत चाकर चतुर के।
जब हिम्मत बहादुर ने देखा कि कविजीको क्रोध भागया और सरस्वती जी जिहा पर बिराज कर कविता-धारा बक्ष रही हैं, तब वह दबकारहा और अपने सहज स्वाभाविक से मुसंकुरा कर बोला कि “बस बस कवि जी बस, हम केवल इतना ही देखना चाहते थे कि आप केवल कवि-ही कवि हैं कि पूर्वजों की तरह आपमें कुछ हिम्मत भी है"। इन बचनों ने ठाकुर की कोधारित को कुछ शान्त कर दिया। उन्होंने तब-