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श्रीनगर के निकट महाराज से जा मिले और घोड़े से उतरते ही उन्होंने यह सवैया पढ़ा-

सपैया।


कैसे सुचित्त भये निकूसौ विहसौ बिलसौ हरि दै गलबांहीं। ये छल छिद्रन की बतियां छुलती छिन एक घरी पल मांहीं। ठाकुर वे जुरि एक भई रचिहैं परपंच कछू ब्रज मांहीं । हाल चवाइन को दुइचाल सो लाल तुम्हें या दिखात कि नाही।

महाराज साहेब उस समय दतुवन कर रहे थे मुसकुरा कर चुप हो रहे । ठाकुर ने दूसरा सवैया यह कहा-

सवैया

निज मंत्र न औरन सों कहने अपने चित चोज बिचारने है। पुनि नेक को नेक लटे को लटो यह रीति सदा उर धारने है। कह ठाकुर प्यारे सुजान सुनौ मन की उरझी निनवारने है। चहुँ ओर से चौचंद चार उठो सो बिचार के यार सँभारने है॥

महाराज पारीछत समझ गए कि साक्षात सरस्वती देवी ही कवि जी के मुख पंकज पर विराजमान होकर मुझे बांदा जाने से रोक रही हैं, बस वहीं से लौट पड़े। तब हिम्मत बहा. दुर ने ठाकुर को बोला भेजा। पहिले से ही हिम्मत बहादुर ठाकुर की कविता का आदर करते थे. अतएव,ठाकुर तनक भो न डरे और साधारण स्वभाव से उनके यहांचले गए । हिम्मत बहादुर ने सरे दरयार ठाकुर पर अपना क्रोध प्रकट किया और कैद करने की धमकी दी। ठाकुर ने उसी समय यह कवित्त कहा-

वेई मर निरनय विधान में सराहे जात, सुखन अघात प्याला प्रेम को पिये रहैं।