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उन्हें दिया। इनके काकोरीय वंश के वंशधर लाला हरसेवक लाल अब तक बिजाघर में मौजूद हैं और दरबार बिजावर के सरिश्तेदार हैं। ये मडाशय कवि तो नही हैं परन्तु रियासती काम काज में बड़े चतुर और हिन्दी उर्दू में बहुत योग्य पुरुष हैं।

सर पर पगड़ी, बदन पर खुली बाहों की मिरजई, कमर से कसी हुई एक ओर तलवार, एक ओर बुन्देलखण्डी हाथ भर लम्बी पीतल की दाबात, पावों में झब्बेदार बुन्देलखण्डी जूता, यह उस समय के बुन्देलखण्डी कायस्थों का फैशन था। इसी से ठाकुर का भी फोटो समझ लेना चाहिये। न उस समय फोटोग्राफी के यंत्र का चलन था, न उस समय का अब कोई मनुष्य मौजूद है जिससे ठाकुर की सूरत शकल की अनु- हार पूछे, परन्तु 'देखन चाहौ मोहिजो मम कविता लखि लेहु, के अनुसार हा ठाकुर के मनोगत भावों को उनकी कवि ता से समझ कर अनुमान कर सकते हैं कि ठाकुर कवि दूर दर्शी, देश-काल की चाल को समझनेवाले, हँसमुख, सौंदर्यो पालक, ईश्वर पर भरोसा रखनेवाले, चतुर और नम्र स्व- भाव के मनुष्य थे। जैतपुर नरेश केशरीसिंह जी के देवलोक होने पर उनके पुत्र राजा. पारीक्षत नाबालिग थे। उनकी नाबालगी के कारण राज्य काज में गड़बड़ देख ठाकुर बिजा- घर में रहने लगे, परन्तु जब राजा पारीक्षत सयाने होकर राज्य सिंहासनासीन हुए तो उन्होंने ठाकुर को फिर अपने दरबार बुला लिया। इन्हीं महाराजा पारीक्षत के समय ठाकुर की प्रख्याति हुई । महाराज पारीक्षत इनको अपने दरबार की एल समझते थे और नानकार के अतिरिक्त समय समय पर उपहार व पुरस्कार देकर इनका सत्कार करते थे। समया-