रम्पती हूँ ! माज ही रात को गाडी में यहा म पल दंगे।' खुदावर न गनी सुलताना ये हाय रेली पौर रहा, 'नही जाने मन । प्रवाले नहीं जाएगे। यही दिल्ली म रमर पमाएगे । य तुम्हारी चूडिया सबकी सब यहीं वापम पाएगी। मल्लाह पर भरोगरपो, वह बड़ा कारमान है। यहा भी शाईने पोई सवय बना ही देगा। मुन्नाना चुप हो रही पौर या प्रापिरी शगनी भी हाथ म उतर गई। बुच्चे हाथ दपार उगयो बहुत दुख होता था, पर क्या परती। पैट भी तो किमी होले भरना था। जब पाच महीन गुजर गए पोर ग्रामदनी पर ये मुगाबले में चौधाई मे भो मम रहो तो सुलताना पो परेशानी और अधिर बढ गई। गुलमाना को इमरा भी दुख था । इमम पाई ग नही मि पडाग में उमपी दो. तीन मिलने वालिया मौजूद थी, जिनमें गाय वर अपना समय काट रामती थी, लेकिन प्रतिदिन उनी यहा जाना और घण्टो बैठे रहना उगयो बहन चुरा लगता था। प्रतएव धीरे धीरे उमने उन महेलिया में मिला-जुनना भी वाद कर दिया और मारा दिन अपने सुनमान मान में बैठे रहती। कभी छानिया बाटती रहनी, कभी अपने पुरान और फटे हुए पिडा पो सोती रहती और कभी बाहर बावनी में मार जगले के साथ लगपर बड़ी हो जाती और मामने रेनचे शेड मे चुपचाप मई या भर-उभर शट करत हुए इजनो को पोर निहारनी रहती। मड के दृप्सरी मोर मालगोदाम था जो इस वोन से उम कोने तर ना हुआ था। दाहित हाथ को लोह को छन वे नीचे बटी वही गाठे पडी रहती थी और हर प्रकार के माल गमवाय के ढेर मे लग रहत थे। चायें हाथ को युला मैदान था जिसम रेल की अनगिनत पटरिया विधी हुई थी। धूप म लोहे की ये पटरिया चमाती तो सुनताना अपने हाथों की ओर दवती जिा पर नीली नीती नाडिया निकुन उन पटरियो को तरह उभरी रहती थी। इम लम्चे और मुले मैदान में हर समय इजन और गाडिया चलती रहती-भी इधर, कभी उधर । वातावरण में इजन और गाडिया की एक छर, फर फा गूजती रहती थी। सुबह- सवर जब वह ठर चाकनी म माती तो इधर उधर पडे इजनो के वाली सलवार/491 ,
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