सुलताना एक महीन तक बेरार रही तो उसने यही सोचकर अपने दिल को तसल्ली दी। जब दो महीने गुजर गए और कोई प्रादमी उसके कोठे पर न पाया तो उसे बडी चिता हुई । उसने खुदावरश स कहा 'क्या बात है खुदाबख्श, पूरे दो महीने हो गए हैं हमे यहा प्राए हुए, किसीने इधर मुह भी नहीं किया। मानती हू, प्राजक्ल बाजार बहुत मदा है, पर इतना मदा भी तो नहीं कि महीने में एक भी गवन देखने मे न आए।' खुदाबरश को भी यह बात बहुत पहले से खटक रही थी लेकिन वह चुप था। सुलताना न जब स्वय ही बात छेडी तो उसन कहा 'मैं कई दिना से इस बारे में सोच रहा हू। एक ही बात समझ मे पाती है कि जग की वजह से लोग बाग दूमर धधो में पडकर इधर का रास्ता भूल गए हैं या फिर यह हो सकता है कि वह इसके आगे कुछ कहने ही वाला था कि सीढिया पर किसी चढने की अावाज आई । खुदाबरश और सुलताना दोना के कान खडे हो गए। थोड़ी देर के बाद दरवाजे पर दस्तक हुई । खुदावरश ने लपककर दरवाजा खोला, एक आदमी भीतर आया। यह पहला नाहर था। इसके बाद पाच पार पाए अयात तीन महीने म कुल छ , जिनसे सुलताना ने केवल साढे अठारह रुपये वसूल दिए। श्रीस स्पये मासिक तो पलट के किराय म चले जात थे, पानी का टैक्स और बिजली का बिल अलग। इसके अतिरिक्त घर के अय खर्च, खाना पीना कपडे-लत्ते दवा दार और आमदनी कुछ भी नहीं थी। तीन महीने मे सारे अठारह स्पय आए तो इस प्रामदनी तो नहीं कहा जा सक्ता । सुलताना परेशान हो गई। साढे पाच तोले की आठ कगनिया, जो उसन अवाले म बनवाई थी एक एक करके विक गई। जब प्राविरी यगनी की वारी प्राई तो उसने खुदावरा से कहा 'तुम मेरी मुनो और चलो वापस अगाले–यहा क्या धरा है ? भई होगा, पर हम तो यह गहर रास नहीं पाया । तुम्हारा काम भी वहा सुब चलता था । चलो वही चलते हैं। जो हमा है उस अपना सिर सदया समझो। इस वगनी वो वैचरर पापा, में सामान वगग बाधकर 48/ टोवा टवसिंह
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