लम्बी कहानी है । सुरावरून रावलपिण्डी का था। मद्रिय पास परन के बाद उसन लारी चलाना सीसा और फिर चार साल तक रावलपिण्डी पार कश्मीर के दमियान लारी चलान वा काम करता रहा । उसके बाद कश्मीर म उसकी दोस्ती एक औरत से हो गई और वह उस भगा- कर लाहौर ल पाया । लाहौर मे चूकि उस कोई काम न मिला, इसलिए उसन उम औरत का पशे पर बिठा दिया । दो-तीन साल तक तो यह सिलमिला चलता रहा पिर वह औरत किसी और के साथ भाग गई। खुदाबख्श को पता चला कि वह अम्बाला में है। वह उसकी तलाश मे अम्बाला आया। यहा उस औरत की वजाय उस सुलताना मिल गई। सुलता ने उसको पसद किया प्रतएव दोनो मे सम्बध हो गया। खुदावरा के आने से सुलताना का कारोबार एक्दम चमक उठा। औरत चूकि अघविश्वासी थी, इसलिए उसने समझा कि खुदावरा बड़ा भाग्यवान है जिसके पाने से इतनी उन्नति हो गई, अतएव उसकी दष्टि म सुतावरश का महत्त्व और भी बढ़ गया। खुदावरूश आदमी मेहनती था। सारा दिन हाथ पर हाथ रखकर बैठना उसे पसद नहीं था, इसलिए उसन एक् फोटोग्राफर से दोस्ती पैदा कर नी, जो रेलवे स्टेशन के बाहर मरे में फोटो खीचा करता था । उसस सुदावरश ने फोटो खीचना सीखा, फिर सुलताना से साठ रुपये लेकर कैमरा भी खरीद लिया। धीरे धीरे एक पर्दा वनवाया, दो पुसिया खरीदी और फोटो धोने का सारा सामान लकर उसने अलग से अपना काम शुरू कर दिया। काम चल निकला और कुछ दिनो के बाद ही उसने अपना अड्डा छावनी म कायम कर दिया । यहा वह गोरा के फोटो खीचता । एक महीन के भीतर भीतर छावनी के बहुत मे गोरा से उसका परिचय हो गया, अत- एव वह सुलताना को भी वही छावनी म ले गया और खुदावरश ही में माध्यम स कई गोरे सुलताना के स्थायी ग्राहक बन गए। सुनताना ने काना के वुदे खरीद । साडे पाच ताल की पाठ क्गनिया भी बनवाई। दस पद्रह अच्छी अच्छी साडिया भी खरीद ली। घर में 46/ टोबा टेकसिंह
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