भी एक को बाहर सुली हवा में ले जाता था-चड के नगे नगे मजाय सुनकर उसी तरह वहक्ह लगते थे--एक सिफ वह नहीं थी वह, जिसके बालो वे रग के लिए मही उपमा ढूढने मे चडढे न काफी समय लगाया था। लेकिन इस महफ्लिो मे चड्ढे ने काफी समय लगाया था। लेकिन इन महपिलो मे चडढे की निगाह उमे टूटती नही थी। फिर भी कभी कभी जब चड्ढे की नजरें मम्मी की नजरा से टकराकर भुव जाती थी तो मैं अनुभव करता था कि उसको अपनी उस रात की दीवानगी या अफ्मोस है। ऐसा अपमोम, जिसकी याद से उसरो तकलीफ होती है। प्रतएव चौथे पेग के बाद विमो समय इस तरह का एक वाक्य उसकी जवान मे निकल जाता, 'चडढा, यू पार ए डेम्ह यूट यह सुनकर मम्मी होठो ही हाठो मे मुस्करा देतो, जसे वह उम मुस्व- राहट को मिठास म लपेट-लपटपर कह रही हो-'डाण्ट टाक राट ।' वनस्तर से पहले ही की तरह उमकी चख चख चलती थी। नशे में प्राकर जब भी वह अपन बाप की प्रशसा मे या अपनी बीवी की खूबसूरती के सम्बघ म कुछ कहन लगना तो वह उसको वात बहुत बडे गण्डारा स वाट डालता । वह बेचारा चुप हो जाता और अपना मट्रीक्यूलेशन का सटिपिकेट तह करके जेब में डाल लेता। मम्मी वही मम्मी थी पोली की मम्मी, डोली को मम्मी, चड्ढे की मम्मी, रजीतकुमार की मम्मी । साठे की बोतलो, खान पान की चीजा और महफिल जमान के दूसरे साजो-सामान के प्रबंध में वह वसी ही स्नेहपूण दिलचस्पी से हिस्सा लेती थी। उसके चेहरे का मेकअप वैसा ही बाहियात होता था। उसके कपडे उसी तरह भडकीले थे। मुर्सी की तहा से उसकी झुरिया उसी तरह झाक्ती थी, लेकिन अब मुझ ये पवित्र दिखाई देती थी। इतनी पवित्र कि प्लेग के कोडे उन तक नही पहुच सकते थे । डरकर, सिमटकर वे भाग गए थे चडढे के शरीर से भी निकल भागे थे, क्योकि उसपर उन झुरियो की छत्रच्छाया थी-उन पवित्र झुरियो की, जो हर समय बहुत ही वाहियात रगो मे लिथडी रहती थी। वनवतरे की खूबसूरत बीवी का जव गभपात हुआ था तो मम्मी की ही तत्कालीन सहायता से उसकी जान बची थी। लिमा जव हिदुस्तानी मम्मी | 163
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