पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/७५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अमिमान्य ज्ञानकोष (अ) ६५ अग्निमापक पेटमें जमा होने लगे तो अलसक इत्यादि रोग अजीर्ण के प्रकोपसे जिसके दाँत, होठ, नख हो जाते हैं। इत्यादि काले पड़ गये हों, जिसकी आँखें गड्ढेमें वैद्यकशास्त्र में विसूचिकाके लक्षण इस भाँति घुस चुकी हो, कफसे पीड़ित हो, और जो अचेत- देते हैं-पेट में गुड़गुड़ाहट होना, सूई के समान पेट ! प्राय हो चुका हो, जिसको गला बैठ चुका हो और में गड़ना, नाना प्रकारकी वेदना, (सूचिभिरिव | सब सन्धियाँ शिथिल हो चुकी हों, ऐसा रोगो गात्राणि विध्यतीतिविसूचिका।), कै दस्त बहुत असाध्य ही समझना चाहिये। होना, वायुदोष, उदरपीडो, चक्कर आना, कम्प, शुद्ध डकार श्राना, चित्तमें उत्साह होना, पेट फूलना इत्यादि। पित्ताधिक विसूचिका शरीर हलका मालूम होना, मल-भूत्रका ठीक ठीक तो ज्वर, अतिसार, अन्तरेन्द्रियोंमें दाह, प्यासकी त्याग होना, भूख प्यासका खुलकर लगना इत्यादि अधिकता और आँखोंके सामने अँधेरा भी छा | पाचनशक्ति ठीक होनेके लक्षण हैं। जाता है। कफजन्य विसूचिकामे कै होती है, जैसा कि प्रारम्भ ही में कहा जा चुका है कि शरीर भारी हो जाता है, बोला नहीं जाता, मैं हमे यह रोग स्वतन्त्र तथा परतन्त्र दोनो ही प्रकार थूक भर पाता है और पेटमै अफार हो जाता है। का हो सकता है। इसलिये पहले इसके कारणका बहुत अधिक कब्ज रहने से भोजन किया हुआ; ही ठीक-ठीक अनुसन्धान करना आवश्यक है। अन्न पेट में ही सड़ता है और जमा होता जाता तदनन्तर औषधि उपचार करना उचित है । यदि है। वह कफादिसे आच्छादित हो जानेपर पेटमें परतन्त्र हो अर्थात् किसी दूसरे रोगके कारण ही ही घूमा करता है और वायुका प्रकोप हो जाता है। यह उत्पन्न हो गया हो तो उस गेगकी ठीक-ठीक तव पेटमें दर्द, पेटका फूलना आदि रहते रहते परीक्षा कराकर उसकी चिकित्सा करनी चाहिये । 'अलसक' इत्यादि रोग हो जाता है। अलसकर्म किन्तु यदि यह स्वतन्त्र हो तो प्रथम तो लंघन श्रामदोषका अधिक प्रकोप होकर सम्पूर्ण शरीर करना चाहिये। यदि अपच लंघनसे ठीक न हो तो पर इसका प्रभाव पड़ता है और सारा बदन 'पाचक' धौषधियाँ व्यवहारमें लाना चाहिये। लकड़ीके समान कड़ा हो जाता है। यही बढ़ , किन्तु यदि केवल पाचकसे भी लाभ होतो न देख जाने पर 'दंडकालसक' हो जाता है। इसका | पड़े तो वमन होनेका उपाय करना चाहिये अथवा चिकित्सक यश नहीं पाता है क्योंकि यह असाध्य ! जुलाव लेना चाहिये । यदि अजीर्ण हीसे पेटमें होता है। दर्द हो अथवा 'अलसक' के लक्षण देख पड़े तो बिसूचिका तथा अलसक दोनो ही त्रिदोषजन्य शीघ्र ही वमन होनेके लिये औषधि देना चाहिये। होते हैं और कठिनतासे साध्य होते हैं। ऐसी अवस्था में पेटको सेंकने और वायु-दोषको यद्यपि बहुत अधिक खानेसे ही बहुधा अपच दूर करने के लिये गुदाद्वारसे पेटमै बत्ती (nema) होता है किन्तु कुछ ऐसे पदार्थ भी हैं जो केवल . चढ़ानेसे लाभ होता है। हाथ पैर में ऐंठनके लिये थोड़ा खाने से भी अपच करते हैं। अरुचिकर उनको कलकर गरम कपड़ेसे लपेट देना चाहिये । भोजन, वातोत्पादक अन्न, घीमें पकाया हुआ अन्न, विसूचिकामे टीके ( Injection) का इलाज भूना हुआ अन्न, अर्धपक्क अन्न, मलीन, रूखा सूखा, लाभदायक होता है । केवल जलके अतिरिक्त पूग ठण्डा और बासी अन्न सदा हानिकारक होता है । उपवास कराना चाहिये । रोग का कोष दूर होने दाह उत्पन्न करनेवाला भोजन, बहुन पतली चीजें पर जिस भांति जुलाबके पश्चात् धीरे धीरे क्रमा- थोड़ा खाने पर भी देरमें पचती हैं । शोक तथा नुसार खाद्य पदार्थ दिये जाते हैं, उसीभांति इसमें क्रोधसे अस्थिर होनेपर भी खाया हुआ अन्न | भी पहले मट्ठा इत्यादि देकर रखना चाहिये । नहीं पचता। जब जठराग्नि प्रदीप्त होजाय तब धीरे धीरे अन्न असमय अर्थात् भोजनका समय न होनेपर देना चाहिये । थोड़ा खाया हुआ भी नहीं पचता। इसे 'विषमा श्रजीर्णके श्रारंभमें कोई भी पाचक औषधिका शन' कहते हैं। पथ्य और अपथ्य दोनों एक ही सेवन न करना चाहिये। क्योंकि उससे अजीण साथ खानेसे भी हानि होती है। इसे 'समशन' बढ़ेहीगा। जहाँतक हो नैसर्गिक नियमोंकी ही कहते हैं। भोजनके कुछ ही देर बाद फिर खाने | शरण लेनी चाहिये। को 'अध्यशन' कहते हैं। सदा ही विषमाशन, अग्निमापक---(तापीय वृद्धि मापक)-बहुत समशन, और अध्यशन होते रहनेसे घोर अजीर्ण | अधिक उष्णमान अथवा ताप नापनेका यन्त्र । होकर मृत्यु तक हो सकती है। इसका अंग्रेजीमै पायरो मीटर (Pyrormetre) &