पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/७१

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! अग्निपुराण ज्ञानकोश (अ)६१. अमिपुराण और शब्द मेघके सदृश होना चाहिये। कर्ण | निक शिक्षा की तुलनामे बहुतही कम है । कुल २२ विशाल और उसपर सूक्ष्म बिंदु होने चाहिये। श्लोक हैं और उनमें भी कुछ श्लोकों के तीन चरण तदनंतर हाथीको कौनसी औषधियाँ देनी चाहिये शिक्षाके विषयमें नहीं हैं")अ० ३३७ में काव्यादि इसका विचार किया है। लक्षण । श्र० ३३८ में नाटक निरूपण । अ०३३६ में अ० २८ मै अश्ववाहन सार। इसमें घोड़े रस निरूपण। अ० ३४० में हत्या, अङ्गविक्षेप कर्म का बेग, चलनेका ढंग, घोड़ा कैसा शिक्षित होना निरूपण । अ० ३४१ में अभिनयादिनिरूपण । चाहिये-इसका उल्लेख है। अ० २-8 में अश्व अ० ३४३ में शब्दालंकार । १०३४४ में अर्थालंकार। चिकित्सा, औषधि । अ० २६० में अश्व शान्ति। अ० ३४५ में शब्दार्थालंकार । अ० ३४६ में काव्य अ० २६१ में गज शांति । अ० २९२ में गवायुर्वेद, | गुणविवेक । अ० ३४७ में काव्यदोष विवेक । अ० तथा मन्त्र परिभाषा। अ० २६४ में नाग लक्षण, ३८ में एकाक्षराभिधान । इसमें एक अक्षरका सादिकोंकी जातियाँ और उनके प्रमाण । केवल एक अर्थ अथवा अधिक अर्थ दिये हैं। विष वैद्यक-(०२६५ से २६%) अ० २६५ में व्याकरणसार:-(अ० ३४६-३५६) कात्यायनके दंश चिकित्सा । अ० २६६ में पंचाग रुद्र विधान: लिखे हुप. व्याकरणको ही असली व्याकरण कहते अ० २६७ में विष-हरण करनेके मन्त्र और | हैं। प्रथम ३४ सूत्रोंका पाट दिया है। इसमें सूत्र औषधियाँ । अ० २६८ में गोनसादि चिकित्सा। अथवा वृत्ति अथवा वार्तिक भाग नहीं है केवल अ० २६६ में बालादि-ग्रह हर बालतंत्र । अ० ३०० शब्दका स्वरूप दिखाया है। श्र. ३५० में संधि- में ग्रहादि पीड़ा शमनार्थ मंत्र! अ० ३०१ में सूर्या- | सिद्धरूप । अ० ३५१ मै सुविभक्त सिद्ध रूप । अ० र्चन। अ० ३०२ में अनेक मंत्र औषधि कथन । ३५२ में स्त्रीलिंग शब्द सिद्धरूप । अ०३५३ में अ०३०३ में अंगाक्षरार्चन । नपुंसक शब्द सिद्धरूप। ३५४ मै कारक । अ० मन्त्रउपासना विषय-श्र० ३०४ में पंचाक्षातादि ३५५ में समास । अ० ३५६ में तद्धित् रूप । श्र० पूजा मंत्र । अ० ३०५ में विष्णु नाम । अ० ३०६ | ३५७ में उणादि सिद्ध रूप। अ० ३५८ में तिति में नृसिंहादि मंत्र। अ० ३०७ में त्रैलोक्यादि | भक्ति सिद्धरुप । अ० ३५६ में कृत सिद्धरूप । मोहन मंत्र । अ०३०८ में त्रैलोक्य मोहिनीलदम्यादि शब्दकोश:-अ० ३६० में स्वर्गपतालादि वर्ग पूजा । अ० ३०६ में त्वरितादि पूजा । अ० में आये हुए नाम । ये श्लोक श्रमरकोशमें भी पाये ३१०-३११ मै त्वरिता मूल मंत्र । अ० ३१२ ! जाते हैं। श्र० ३६१ में अव्ययादि । अ० ३६२ में में त्वरिता विद्या। अ० ३१३ मैं नाना मन्त्र । नाना अर्थ वर्ग । अ० ३६३ में भूमिवनौषधिवर्ग । अ०३१४ में त्वरिता ज्ञान। श्र.३१५ में स्तंभ अ. ३६४ में मृब्रम्हक्षत्रक्टिशुद्ध। श्र. ३६५ में नादि मंत्र। श्र० ३१६ में नाना मन्त्र । अ० ३१७ ब्रह्मवर्ण । अ. ३६६ में क्षत्रविटशूद्र वर्ग । अ० में सकलादि मंत्रोद्धार। अ० ३१८ में गण पूजा। ३६७ में सामान्यनामलिंग । १० ३६८ में प्रलय- श्र. ३१६ में वागेश्वरी पूजा। अ०३२० मैं मंडल वर्णन । श्र० ३६६ में आत्यंतिक लय, गर्भोत्पत्ति । श्र. ३२१ में घोरास्त्रादि शान्ति कल्प । मृतकका शरीर नष्ट होने पर वायु रूपसे यमलोक श्र० ३२२ में पाशुपत शांति । अ० ३२३ में षडं- जाता है और वहां दुख भोगकर वायुरूपसे गर्भ में गान्य घोरास्त्राणि । श्र० ३२४ में रुद्र शोति । आता है। मासानुक्रमसे गर्भकी वृद्धि और उसकी श्र. ३२५ में रुद्राक्षादि लक्षण और धारण, उत्पत्ति होती है ।। १० ३०० में शरीरके अवयव । श्रशंकादि मंत्र। यह मंत्र शास्त्रका ही भाग है। इसमें हाथ पैरों की नसे, नाड़ियाँ, अस्थि तथा अ० ३२६ मे गौर्यादि पूजा । अ० ३२७ में गोर्यादि दूसरे अवयवौकी संख्या दी है। श्र० ३७२ में महात्म्य। नरक निरूपण। छन्द, काव्य, नाटक, नृत्य, शिक्षा, अलंकार । योग-अ० ३७२ में यम नियम । अ० ३७३ में (अ. ३२८-३४८) अ० ३२८-३२६में ग्रंथकार आसन प्रणायाम । अ० ३७४ में ध्यान । अ० ३७५ का कथन है कि छंदसार पिंगलोंके ग्रंथसे उतारा में धारणा । अ० ३७६ में समाधि । अ० ३७६-३८० गया है-(छंदोलक्ष्ये मूलजस्तैः पिंगलोक्तम् यथा में अध्यात्म ब्रह्मज्ञान । इसमें दिया हुआ जड़भरत- क्रमम् ) १० ३३० मै छंदःसार । १० ३३१ में संवाद भागवतमें भी है। परन्तु श्लोक-रचना भिन्न छंदकी जाति । अ० ३३२ में विषम वृत्त । श्र० है । अ० ३८१ मैं गीतासार, कृष्णार्जुन संबाद । ३३३ में अर्ध समवृत्त। अ०३३४ में समवृत्त । १० इनको तात्पर्य प्रायः गीताके श्लोकोके समान है। ३३५ में प्रसाद वर्णन । अ० ३३६ में शिक्षा (अाधु अ० ३८२ में यम गीता । इसमें प्रत्येकके विशिष्ट -