पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/३०७

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श्रपुष्प वनस्पति ज्ञानकोश (अ)२६४ अपुष्प वनस्पति जनन पेशी एक ही प्रकारकी होती हैं। वरकपर्णक | निकलते और जमीनमें प्रवेश करने पर इसमें जड़े और दीर्घपर्णकके भिन्न भिन्न दो भेद होते हैं। फूटती हैं। मूल शाखाके तोड़नेपर इसमें पत्ते (१) लघुपर्णकके प्रायः सब भेद जमीन पर निकलते हैं। पैदा होते हैं। बहुत कम दूसरे पेडोपर पैदा होते शाखाके सिरेके पाल फुनगी निकलती है। हैं। बे वनस्पतियाँ सह्याद्री पर्वतके कॅसलराकके उनमें के प्रत्येक पत्तेके अक्षकोणमे एक जननपेशी जंगल में पाई जाती हैं। तना विलकुल जमीनके का गुच्छा रहता है। जननपेशियाँ दो प्रकारकी सरपट होता है। और ऊपर शाखाएँ निकलती होती है। चार चार स्त्री जननपेशयिाँ एक साथ हैं। शाखा और मूल द्विपाद होते हैं। तने पर मिलकर एक २ जननपेशी में होती हैं। पुरुष घने पत्ते आते हैं और वे छोटे छोटे होते हैं। वे जननफेशियाँ बहुत सी मिलती हैं। जननपेशाके अधिक चौड़े और उनके सिरे बहुत लम्बे होते हैं गुच्छोंमें दरार पड़ी रहती हैं। और फिर वे अन्य भागोंकी अपेक्षा तुरै परके पत्ते अधिक घने फूटती हैं और वे जननपेशियाँ वाहर निकलती हैं। होते हैं। प्रत्येक पत्ते के अक्षकोणमें ऊपरकी तरफ पुरुष जननपेशियोंके गुच्छे फूटनेके पूर्व ही उसमें एक एक जनन पेशीका गुच्छो रहता है। उसका बढ़ने लगती हैं। उसमें पेशी विभाग होकर एक श्राकार मिरचाके अथवा वैगनके बीजोके समान | अति सूक्ष्म पुरस्थाणु निकलता है. और उस पर होता है। उसके मध्य भागमें एक चीर पड़कर रेतकरंडक तैयार होता है। इसमें बहुत सो उसके दो भाग होते हैं और जनन पेशी बाहर ! रेत पेशियाँ होती हैं। उनमें बालके सदृश तन्तु पड़ती हैं । जनन पेशो एक ही श्राकारकी होती हैं। होते हैं। स्त्री जननपेशी बहुधा जननपेशीके गुच्छे पुरस्थाणु प्रायः जमीनके नीचे रहता है । कई बार में ही बढ़ने लगती हैं। अननपेशी फूटकर पुरस्थाणु उसका कुछ भाग ऊपर आता है और कई एकमे कुछ बाहर निकलता है। इससे तीन रजकरंडक तो वह कुल ऊपर होता है। ऊपरवाले भागमै | उत्पन्न होते हैं। संयोग होनेपर गर्भ बढ़ता है। हरिद्रव्य होता है, सबमें नहीं होता। उनके | उसको पैर निकलते हैं, और लघुपर्णकके नीचेकी ओर जड़में छोटे छोटे तंतु होते हैं, और समान प्रलंबक नामक दूसरा भाग होता है। ये ऊपर की ओर संयोगिक इन्द्रियाँ होती हैं। पुर- | वनस्पतियाँ जंगलों में अधिकतासे पायी जाती हैं। स्थाणुका श्राकार गिलास के समान होता है, और (३) दीर्घ पर्णक नामकी वनस्पतियाँ प्राचीन कभी कभी मूली अथवा गाजरके समान लम्बा | समय में बहुत थीं। उन वनस्पतियों से प्राज- होता है। रेतकरंडक करोष करीब दिलकुल ही कल एक ही अस्तित्वमें हैं। इसका तना छोटे बाजूकी पेटीमें गड़ा हुआ रहता है, और रज कर गड्ढके समान होता है और यह द्विपाद शाखा डक ऊपर रहता है। संयोगसे हुआ गर्भ कुछ युक्त होता है। शाखायें तथा तने जमीनसे मिले समय तक पुरस्थाणु पर ही बढ़ता है और पूर्ण बढ़ रहते हैं। पत्तोंका एक गुच्छा ऊपर आता है। जानेपर स्वतंत्र होता है। पत्ते लम्बे दर्भके समान तथा कड़े होते हैं। २) वल्कलपर्ण वनस्पतिमें अनेक भेद होते। उसके मूलके पास भीतरकी ओर एक खाँच होती हैं। ये प्रायः जमीन पर फैलनेवाली होती हैं। परन्तु | है। उसमें जननपेशी के गुच्छ होते हैं। तनेमें कुछ खड़ी भी होती हैं। कई एक किसीके आधार | संबर्धक प्रदर ( Cambium ) रहता है और इसी पर लताके समान ऊपर जातो हैं। इनके तनीकी कारण इसकी वृद्धि होती है। बल्कपणों के समान द्विपाद शाखाएँ होती हैं। इनकी वृद्धि इत्यादि । ही इनके पत्तोंमें एक छोटा आच्छादन होता है । करीब करीब लघुपक सी ही हैं। पुरुष जननपेशी भी वल्कपर्णकके समान पहले इनमें महीन २ बल्कोंके समान पत्ते होते हैं। बढ़ने लगती है और उसमें सूक्ष्म पुरस्थाणु उत्पन्न ऐसे पत्तोंके सामने ही दूसरे बड़े तथा चौड़े पत्ते होकर रेतकरंडक उत्पन्न होते हैं। रजकरंडक आते हैं। प्रत्येक पत्रके निकलनेके स्थानके | भी उसी प्रकार बढ़कर गर्भ तैयार होता है। समीप एक छोग सा बिल्कुल पतला आच्छादन | इसको पैर होता है किन्तु लघुपर्णक और वल्क- होता है। यही इस जातिका विशेष लक्षण है। पर्णकके समान दुसरा भाग प्रलंबक नहीं होता। तनेके जहाँपर दो विभाग होते हैं, उस जगहसे इस विषयमें यह वनस्पति मुद्गलक जातिसे एक लम्बी अंकुरोंके तन्तुके समान शाखा निक- भिन्न है। लती है और जमीनमें प्रवेश करती है। यह प्रस्तरी. भूत अपुष्प वनस्पति-प्राचीन समयकी शास्त्रा तनेका ही एक भेद है। इसमें पत्ते नहीं। कुछ वनस्पनि और प्राणि इत्यादि भूकम्पले या