पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२९७

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अपुष्प वनस्पति ज्ञानकोश (अ) २७४ अपुष्प वनस्पति इस जातिकी वनस्पतिसे एक कड़ा किन्तु भोजनके पदार्थपर जो भूरी सी (फफून्दन ) आई गोंदके समान पदार्थ तैय्यार होता है और देख पड़ती है, वह भी इसी जाति की होती है । इसका दवाइयों में उपयोग होता है। इससे अगर | यह पिछली वनस्पतिसे बहुत ही बड़ी होती है। नामका एक पदार्थ बनाते हैं। वह खाने तथा कुछ दिनमें यह काली पड़ती हुई देख पड़ती है। अन्य अनेक कार्य में आता है। सूक्ष्म यन्त्रौसे इसे देखने पर इसकी रचना स्पष्ट (१२) अवि भामितालिब ( Phycomycetes)- दिखाई पड़ती है। कुछ तन्तु टेढ़े मेढ़े फैले रहते यह अलिब ( Fungi) वर्गाने का एक भेद है। हैं। कुछ उस पदार्थ के भीतर घुसे और कुछ वे वनस्पतियाँ बहुत छोटी होती हैं और परोप- ऊपर निकले हुवे देख पड़ते हैं। ऊपर निकलने जीवो होती हैं। प्राणिज या वनस्पतिजन्य बड़े | वालोमेंसे बहुतोके सिरेमें एक गोली निकली हुई प्राणियोंके शरीरोंपर ये उत्पन्न होती हैं। इनका देख पड़ती है। यह जननपेशी उत्पादन करने स्थाणु बहुतसे गुथे हुए तन्तुओंसे तय्यार रहता | वाली पेशी रहती है; इसमेंका जीवद्रब्य अलग २ है। इसके बीच में पेशीत्वचा श्राकर उसके अलग | होकर अन्दर जननपेशियाँ उत्तम प्रकारसे तैयार अलग भाग नहीं होते। केवल उत्पादक इन्द्रियोंके | होती हैं। तब ऊपर पेशीका कवच फूटता है और उत्पन्न होने के समय ही भाग होते हैं, और उनकी | फिर जननपेशियाँ बाहर निकल पड़ती हैं। जनन वे इन्द्रियाँ बनती हैं। जीवद्रव्य सर्वत्र रहता है। पेशी जिन पेशियों में रहती हैं वे हाथमें छोटे छोटे उसमें अतिशय छोटे छोटे बहुतसे केन्द्र होते हैं। कणोंके सदृश मालूम होती हैं। तथा आँखसे किन्तु रंजितद्रव्य शरीर तो कहीं देख नहीं | योही दिखलाई पड़ती है। कभी कभी ये अयोग- पड़ते। इसलिये ये वनस्पतियां रंगहीन होती हैं। सम्भव रीतिके बदले योगसंभव रीतिसे उत्पन्न इसका अयोगसंभव उत्पादन जननपेशीले | होती हैं। ऐसे अवसर पर मूल तन्तुम अगल होता है। प्रथम एक पेशीका सम्पूर्ण जीवद्रव्य | बगल दो शाखायें निकलती है। इन दो तन्तु ओंका विभाजित किया जाता है और उनसे बहुत सी आकार बहुत निकट आकर उनकी नोक एक जननपेशियाँ उत्पन्न होती हैं। जो जातियाँ पानी | दूसरेसे चिपक जाती है। तब उस चिपके हुवे में होती हैं उनके जननपेशियोंमें एक या दो केश | भागके निकटमै ही दोनों तन्तुओंमें दो त्वचा सदृश तन्तु होते हैं इस कारण वे तैर सकते हैं । | उत्पन्न होती हैं, और इन पूर्ण तन्तुओले दो जो जमीनपर हवामें रहती हैं उसमें एक पेशी छोटे छोटे भाग अलग होते हैं। चिपके हुवे भाग कवच होता है। हवासे उड़कर इष्ट स्थल पर की त्वचा फूटनेले इन दो भागोंके द्रव्य आपसमें गिरते ही उनसे नयो वनस्पतियाँ तैयार होती । संयोग पाते हैं। तत्पश्चात् उसपर एक खुरखुरी हैं। योगसंभव उत्पादन में दो रीतियाँ होती हैं। कटीली त्वचा पाती है। उसीसे एक जननपेशी कुछ जातियों में रेतकरंडक से एक नली निकलती | तैयार होती है। इस वनस्पतिसे अन्य नई वन- है और वह रजकरंडकसे जाकर मिलती है । इस स्पति उत्पन्न होती है। ये जाति बड़ी वनस्पतियों नलो द्वारा रेतमै का द्रव्य रजसे मिलता है और पर रोग रूपसे उत्पन्न होती हैं। उससे एक जननपेशी तैयार होतो है। केवल एक [ इस विषयके पूर्ण व्यौरेके लिये "पिकोंके ही वनस्पतिमें रेत स्वतन्त्ररूपसे बाहर गिरता है। रोग' शीर्षक लेख में देखिये ] दूसरी रीति है दो समान तत्वोका सँयोग और (१३) विभाजितालिंब (Eurnycetes)-अलिंब उससे जननपेशीको उत्पत्ति । वर्गका यह दूसरा भेद है। इसमेकी वनस्पतियों. गोभी, नवलकोल, पालू इत्यादिको भी रोग | का शरीर भी अविभाजित लिंबको तरह तन्तुओं होता है। वह इसी जातिकी सब वनस्पतियों में का होता है। पेशीत्वचा महीन रहती है। इसमें होता है। इसके स्थाणुके तन्तु पत्तौके त्वचारंध्र | भी रेजित द्रव्य नहीं होता। तन्तु एक दूसरेमै से भीतर जाते है और अन्दर अपने जाल कलाते | उलझे हुए रहते हैं तो भी वे एक जीव नहीं हो हैं। बाहर निकले हुवे तन्तु ऊपरकी तरफ बढ़ते | पाते। उच्च कोटिके अलिबने तो बहुत से शाखा हैं और फिर उनपर जननपेशी निकलती है। ये युक्त तन्तु एकत्र होकर उनका एक गोला बन जननपेशियां बहुत शीघ्रताले बढ़ती है और बहु जाता है, और एक किंचित् समपरिणाम पेशी तायतसे होती हैं। वे वायुके साथ उड़ जाती जाल ( Parenchymatons tissue ) तैयार होता हैं। इसीलिये यह रोग फैलता है। है। इनमें के दो भीतरी भेद इनके श्योगसम्भव गोवर, वासी अथवा अन्य खुले रखे वासी | उत्पादनसे पहिचाने जाते हैं। पहिलेमें एक मुद्-