पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२२१

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अद्वैत ज्ञानकोश (अ) १६८ अद्वैत है कि 'जगत मिथ्या है, व्यावहारिक दृष्टिके । उद्गम ग्रीक संस्कृतिमें हैं। श्राधुनिक शास्त्रीय अनुसार तो शंकराचार्य भी जग, जीव-परमेश्वर अन्वेषणोंसे सिद्ध हो चुका है कि प्लेटो साक्रेटीस में भेद मानते ही हैं। शंकराचार्य के 'मायावाद और पिथागोरस आदि ग्रीक तत्ववेत्ताओके ग्रन्थों का महत्व केवल इसी बातमें स्पष्ट हो जाता है। और भारतीय आध्यात्मिक ग्रन्थोंका तुलनात्मक 'अद्वत' वादका समर्थन करनेवालोका कहना है दृष्टिसे विचार करनेपर आत्माको अमरत्व कि 'मायावाद' ही उपनिषद् ग्रंथों के अद्वैत पुनर्जन्म आदिक कल्पनाएँ ग्रीक तत्ववेत्ताओंने सम्बन्धी वाक्योंका समन्वय कर दिखलानेवाली भारतीय तत्वज्ञानसे ही थोड़े बहुत विकृत रूपमें दुधारी तलवार है । उसी प्रकार भिन्नतामे अपना ली हैं । तुलनात्मक भाषा शास्त्रका उत्पादक एकता देखने के लिये की 'भायावाद' बहुत उपयोगी सर विलियम जोन्स एक जगह लिखता है- है। क्योंकि माया का आस्तित्व ही व्यवहारिक “भारतीयोंकी उच्च, स्पष्ट, विशद और व्यापक होने के कारण व्यवहारमें होनेवाली सब प्रकारकी तत्वज्ञानपद्धतिका ग्रीक तत्वज्ञानपद्धतिसे मिलान विविधतामें गुञ्जाइश है। पारमार्थिक दृष्टिसे करनेपर यह कहे बिना नहीं रहा जाताकि ग्रीक मायाका अस्तित्व हीन होने के कारण पूर्ण एकता। लोगोंको भारतवर्ष ही से वह तत्वज्ञान प्राप्त हुआ। याकी बच जाती है। अद्वैतवादका समर्थन ऊपर उल्लिखित निर्माणवादको अपेक्षा श्राज- इसी तरह होता है। कल संसार 'विकासवाद' (परिणाम वाद) को ही शंकराचार्यके पश्चात् स्थापित हुए वैदिक अधिक मानता है। समस्त आदिभौतिक शास्त्र मतों का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर दिखाई देगा. इसी विकासवाद पर खड़े हैं, किन्तु शास्त्रीयज्ञान कि रामानुजने अपने 'विशिष्टद्धत' को सांख्यके को एक ऐसी तीव्र पिपासा होती है जो ऐसे परिणामवाद ( Evolution theory ) पर खड़ा शास्त्रको हस्तगत करना चाहती है जिसके बलपर किया। उसी तरह मधवाचार्याने अपने 'त' का इस चराचर विश्वका स्पष्टीकरण किया जा सके। प्रतिपादन नैय्यायिको की 'परमाणु' कल्पनाको पाश्चात्य शास्त्र ऐसी एकता खोजकर निकालनेमें खीकार करके किया और उसे आरम्भवाद लगे हुए हैं । परन्तु इस साम्प्रदायके अनुयायियों की पुष्टि दी। वल्लभाचार्यका पुष्टिमार्ग प्रधान का कथन है कि 'अद्वत' मत तो विवर्त' वाद को भक्ति साम्प्रदाय भले ही अद्वत हो तौभी उसका उत्पन्न कर श्रागेके मोर्गको स्पष्ट कर देता है। प्रतिपादन तीव्र भावनाओं की एकतासे हुआ जिन जिन लोगोंने तत्वज्ञानके सम्बन्धारे विचार दिखायी देता है। इस तरह श्रद्धतमार्गी यही ! किये हैं, चाहे पाश्चात्य हों या पोरस्त्य, वैदिक मानते हैं कि शङ्कराचार्यका विरोध करनेवाले (वेदोंको माननेवाले ) हों या अवैदिक, तत्त्वज्ञानके बादके प्राचार्योने जो मत स्वीकृत किये थे वे साम्राज्यमें वे केवल एक अद्वितीय वातुके सिवा शङ्कराचार्य के पहलेसे प्रचलित थे। बादके बाकी सबको गौण समझते हैं । प्लेटो, कैन्ट या प्राचार्योने केवल अपनी बुद्धिको कुशलता से अज्ञेयवादी स्पेन्सर अथवा हक्सले श्रादि किसी उनमें थोड़े बहुत हेर फेर किये । इन सब भी प्राचीन या अर्वाचीन तत्वजिज्ञासुको लीजिये दृष्टियोंसे देखनेपर यह मानना पड़ता है कि तो दिखायी देगा कि उनमें से हरएक निःशंक, शङ्कराचार्य द्वारा प्रस्थापित नया मत ही अत्यन्त निष्कलंक एकता की खोज कर रहा है। फिर महत्वपूर्ण है और यही विचार-विकास की भी भारतीय प्रतिवादी तत्वज्ञोंको विश्वास परम सीमा है। है कि पूर्ण सुखके पीछे घुड़दौड़के घोड़ेकी तरह अद्वैत मतका अथवा भारतीय तत्वज्ञानका संसारके जोरले दौड़ते दौड़ते अन्तमें पाश्चात्य शास्त्रोको विचारों पर परिणाम-~इस समय संसारमें जीवित : अद्वैत मतके 'विवर्तवाद' के पड़ाव पर आकर इस्लामी, क्रिश्चियन आदि साम्प्रदायोंने जिस ज़रा सुस्तानो पड़ेगा। प्रारम्भवाद (निर्माणवाद) को स्वीकृत किया [ वाङ्मय–वेदान्तसार-सदानंद, वेदान्त- है वह उच्च तत्वज्ञानमें एकदम प्रारम्भिक परिभाषा-धर्मराज; ब्रह्मसूत्रभाष्य-शंकराचार्य अवस्था का है । इस दृष्टि से देखनेपर यह स्पष्ट गीताभाष्य-शंकराचार्य उपनिषद्भाष्य-शंकराचार्य; है कि माधवाचार्य द्वारा निर्माणवाद' के सिद्धान्त पञ्चपादिका-सुरेश्वराचार्य, चित्सुखी-चित्सुख- पर खड़ा किया हुआ 'द्वत' सिद्धांत उपरोक्त पर- मुनि, खण्डनखाद्य-हर्ष, अतिसिद्धि-मधुसूदन- कीय साम्प्रदायोंसे मिलता जुलता है। पश्चात्य सरस्वती; पञ्चदशी-विद्यारण्य, मांडुक्योपनिषदि जगतकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति और संस्कृतिका गौडपादकारिका-गौडपाद; सिद्धांतलेश-अप्पय्या-