पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२२०

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अद्वैत ज्ञानकोष अ) १६७ भारतवर्षकी चारों दिशाओमें चार साम्प्रदायिक चाहिये। श्रीवल्लभाचार्य पूर्ण अतिको मानते हैं। मठोंकी स्थापना को। अपने प्रधान शिष्य सुरेश्व- | परन्तु मायाका सर्वथैव विरोध करते हैं। इन्होंने राचार्य, तोटक, हस्तामलक चित्सुखाचार्य द्वारा भी भक्तिमार्गको बहुत अधिक महत्व दिया। उनके 'अवत' मतानुरूप बहुत सा साहित्य तैयार किया और माधव साम्प्रदायके कारण ज्ञानमार्ग कुछ इस लेखके अंतमें दी हुई ग्रंथ सूचीसे श्रद्ध त संकुचित सा होगया। 'जीव' और 'जगत' का साम्प्रदायके ग्रंथोंका विस्तार स्पष्ट दिखाई देगा। स्पष्टीकरण करनेके लिये भी शंकराचार्यले विवर्त श्रादिशंकराचार्यने यद्यपि मूल अद्व तमतकी वाद' को स्वीकार किया और 'जैसा है वैसा क्यों स्थापना की थी, फिर भी उसमें के बहुतसे दोषों नहीं दिखायी देतो' इसका स्पष्टीकरण संसारके का मार्जन बादके भाष्यकारों और स्वतंत्र ग्रंथ सन्मुख किया। रामानुजने 'परिणामवाद' को कर्ताओने कर दिया और श्रद्धत मतको सुन्दर स्वीकार कर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है तथा सुव्यवस्थित रूपमें सामने रखा। कि 'जीव' और 'जगत' ब्रह्म का (जिस प्रकार दही श्रद्ध तमत सम्बन्धी विशाल ग्रंथ भण्डारमै दूधका परिणाम है ) परिणाम है । माधवाचार्यने चित्सुखाचार्यकी 'चित्सुखी' मधुसूदन सरस्वतीको 'प्रारंभवाद' को अंगीकार कर यह दिलखाने की ' श्रतसिद्धि' और श्रीहर्ष पण्डितकृत 'खण्डन कोशिशकी है कि विष्णुरूप ब्रह्मने जीव श्रोर जगत खाद्य'-यही तीन ग्रंथ प्रधान हैं। इसके अलावा की उत्पत्तिकी है। वल्लभाचार्यने अधिकृत परिणाम निकर्मसद्धि सिद्धांत लेख श्रादि ग्रंथभी प्रसिद्ध हैं। वाद' ही को स्वीकार किया है। उसी प्रकार सदानन्दकृत 'वेदान्तसार धर्मराजकृत इस तरह इन विरोधी तत्वोंके मतभेदोंको वेदान्त परिभाषा, श्राद्यशंकराचार्यकृत 'उपदेश देखनेपर यह सवाल पैदा होता है कि जव शकरा- ‘सहस्री' और अपशेक्षानूभूति, श्रादि सरल ग्रंथ चायने परमार्थिक विचारोंको अन्तिम तत्व 'अद्रत अद्वैतमतका अभ्यास करनेवालेके लिये प्रारंभ की स्थापना कर दी तब अन्यान्य प्राचार्योने किन घहुत उपयोगी सिद्ध होंगे। इनसब ग्रंथोंमें जो | कारणोंसे उनके मतके विरुद्ध प्रयत्न और वाद- ग्रंथ बादमें विरोधी साम्प्रदायिकों का खंडनकरने विवाद उपस्थित किये ? किंतु इन चारों विचार के लिये निर्माण किये गये उनमें अत्यन्त क्लिष्टता | धाराओंका सूक्ष्म निरीक्षण करनेपर यह दिखायी और शब्दाडंबर ही अधिक दिखायी देता है। देगा कि रामनुजादि साम्प्रदाय संस्थापकोने अद्वैतमत तात्मिक विचारोंकी परमानधि है-इसका ! केवल समाजकी दृष्टिसे विचारकर शंकराचार्यका विचार ऊपर किया जा कुका है कि भारतीय विरोध किया । क्योंकि 'केवलाद्वैत सिद्धांत तत्वज्ञान किस प्रकार उपनिषद् ग्रंथोसे प्रादुर्भूत यद्यपि पूर्णतः सत्य मानने योग्य हैं फिर भी यदि होकर उसकी परिणति प्रथमतः सांख्यके चौबीस अद्वैत सिद्धांतोका वोलबाला हो जाय तो अनधि- यापचीस तत्वोंमे हुई और वैशेषिकोंके सप्तपदार्थों कारी उन्मत और उन्मार्गगामी हो सकते हैं । में से होकर क्रमशः वही तत्वज्ञान दोतीन मुख्य- | साधारण जनता 'अद्वैत' सूक्ष्म विचारोंका मनन तत्वोमै कल्पित हुश्रा तथा अन्तमें एक अविभाज्य करनेमें असमर्थ है। इसलिये 'अहंब्रह्मास्मि' जैसे अवर्णनीय तत्वदशाको प्राप्त हुआ। किन्तु ऐतिहा- महावाक्योंका अर्थ संभव है, 'ऋणंकृत्वा घृतं सिक दृष्टिसे देखनेपर मालूम होगा कि शंकरा- पिवेत्' जैसे चार्वाक्के देहात्मवाद की तरह चार्य के पश्चात् रामानुजाचार्यने 'विशिष्टाद्वत' समझ बैठे। इसी सार्वत्रिक अज्ञानसे उत्पन्न माधवाचार्यने त और वल्लभाचार्यने 'शुद्धाद्वैत'- होनेवाले अधःपतन से डरकर जनताको बचाने ये तीन मत स्थापित किये। इन चारों मतोंमें कुछ के लिये वादके आचार्योंने अपने अद्वत विरोधी बाते मिलती थीं और कुछमें परस्पर विरोध था। मतोंको प्रस्थापित किया हो। माधवने शंकराचार्य इनमै शंकराचार्य ज्ञानमार्गके पोषक, 'माया पर 'प्रच्छन्न बौध कहकर जो आरोप किया है वाद' उपस्थापक और चित्तशोधनके लिये कर्मो- उसके विषयमें कुछ लोगों का यह कथन है पासना ग्रहण करनेवाले हैं। रामानुजाचार्यशानके कि 'अद्व तमत' थोड़ेसे परिवर्तित रूपमें समान ही कर्मोपासना को आवश्यक समझते हुए विज्ञानवादो बौद्धों के मतके पोस तक पहुँच मायाके विरोधी तथा भक्तिके प्रतिपादक थे । पूर्ण | जाता है। इसके सिवा 'अद्वैत' मत का विरोध हैती श्रीमन्माधवाचार्य मायाके कट्टर विरोधी थे। करते समय उत्तरकालीन आचार्योंने उसके कुछ इन्होने भक्तिके महात्म्य को बढ़ाकर यह निश्चित | अंशोको ऐसेही जानबूझ कर छोड़ दिया । क्योंकि किया कि जीवको नित्य 'परेश' की सेवा करनी केवल परमार्थिक दृष्टिसे ही यह कहा जा सकता